
Biology Handwritten Notes in Hindi
हेलो स्टूडेंट्स,
जीव विज्ञानं ( Biology ) विज्ञानं की एक शाखा हे जिसके अंतर्गत समस्त जीवधारियों का विस्तृत अध्यनन किया जाता हे। जीव विज्ञानं में जीवधारियों की उत्पति , उनका विकास , किर्याक्लाप , उनकी रचना , वातावरण का उन पर प्रभाव और उनकी परष्परिक किरियाये सभी प्रकार की ये अनुकिर्या जीव विज्ञानं के अंतर्गत आती हे जो की आपके लिए हम आज की इस पोस्ट में Biology Handwritten Notes in Hindi PDF के रूप में लेकर आये हे जिसको आप आसानी से डाउनलोड कर सकते हे और आराम से पढ़ सकते हे।
जीव विज्ञानं ( Biology Handwritten Notes ) को विज्ञानं की एक शाखा के रूप में स्थापित करने का पूरा कार्य अरस्तु को जाता हे। इन्होने जीव विज्ञानं के बारे में काफी अध्यन किया हे। इसलिए इनको जीव विज्ञानं का जनक कहा (Father of Biology ) जाता हे। लेकिन जीवधारियों के अध्यन के लिए Biology, Bios; Life ; logos; study and discourse शब्द का प्रयोग सबसे पहले 1801 इ में लेमार्क फ्रांस और ट्रेविरनेश जर्मनी नामक दो वैज्ञानिक ने किया था। जिसके बारे में आप पुरे विश्तार से इस Biology Handwritten Notes PDF in Hindi Free में पढ़ेंगे।
जीव विज्ञानं की दो शाखाये हे :- वनसपति विज्ञानं ( Botany ; Botane = Herbs ) और प्राणी विज्ञानं ( Zoology ; Zoon = Animal ; logos= study and discourse ) जीव विज्ञानं की शाखाये हे। वनसपति विज्ञानं ( Botany ) के अंतर्गत वनष्पति अथार्त पेड़ पोधो का अध्यन किया जाता हे और प्राणी विज्ञानं ( Zoology ) के अंतर्गत जीव जंतुवो तथा उनके किर्या कलापो के बारे में अध्यनन किया जाता हे । थिरयोफेशटश ( Theophrastus ) को वन का जनक ( Father of Botany ) कहा जाता हे और अरस्तु ने अपनी पुस्तक Historia Animalium में लगभग 500 जन्तुवों का वर्णन किया हे जिससे की उनको जंतु विज्ञानं का जनक ( Father of Zoology ) कहा जाता हे।
Biology Notes Topics Parts:-
जीव धारियों के वर्गीकरण :-
जीव धारियों के वर्गीकरण को वैज्ञानिक आधार जॉन रे नामक वैज्ञानिक ने प्रधान किया लेकिन जीवधारियों के आधुनिक वर्गीकरण में सबसे प्रमुख योगदान स्वीडन वैज्ञानिक केरोलश लिनियाश ( 1708जेड 1778) का है। लिनियश ने अपनी पुस्तक जेनरो प्लांटेरेम ( genera plantarum) , सिस्टेम नेचुरी ( systema naturae ) , क्लासेस प्लांटरेम ( classes plantarum) ओर फिलोसॉफी बोटनीका (philosophia botanica) में जीवधारियों के वर्गीकरण पर Biology Handwritten Notes in Hindi PDF विस्तृत रूप से परकश डाला ।
इन्होंने अपनी पुस्तक systema naturae में संपूर्ण जीवधारियों को दो जगतो ( kingdoms) – पादप जगत (plant kingdoms) और जन्तु जगत ( animal kingdom) में विभाजित किया । इससे जो वर्गीकरण की प्रणाली शुरू हुई ही उसी से आधुनिक वर्गीकरण प्रणाली की नीव पड़ी है। इसलिए केरोलस लिनियास ( carolus linnaeus) को वर्गीकरण का पिता ( Father of Taxonomy) कहा जाता हे।
परंपरागत द्वि जगत का वर्गीकरण का स्थान अन्तत आर एच हटेकर ( R.H. whittaker) द्वारा सन् 1969 ई में प्रस्तावित 5 जगत प्रणाली ने ले लिया । इसके अनुसार समस्त जीवों को निमनलीखित पांच जगत kingdoms में वर्गीकृत किया गया – मोनेरा monera , प्रोटिस्टा protista, पादप plantae, कवक fungi or एनिमेलिया anilmalia।
जीवों ( Biology ) के नामकरण की दिनाम पदत्ती :-
सन् 1753 में केरोल्स लिनियस ने जीवों के नामकरण की दिनाम पदत्ती को परचलित किया । इस नाम पदत्ती के अनुसार प्रत्येक जीवधारी का नाम लैटिन भाषा के दो शब्द से मिलकर बनता हे। पहला शब्द वंश नाम ( generic name) or दूसरा शब्द जाति नाम ( species name) कहलाता हैं | वंश और जाति नाम के बाद उसका वैज्ञानिक नाम लिखा जाता हे जिसने सबसे पहले उस जाति को खोजा या जिसने इस जाति को सबसे पहले वर्तमान नाम प्रधान किया जैसे मानव का वैज्ञानिक नाम होमो सेपियंस लिन ( homo sapiens linn) है और वास्तव में होमो उस वंश का नाम है जिसकी एक जाति sapiens है। लिन वास्तव में लिनियस शब्द का संक्षिप्त रूप है इसका अर्थ यह हे की सबसे पहले लिनियाश ने इस जाति को होमो सेपियंस नाम से पुकारा गया है।
और भी कुछ जीवधारियों के वैज्ञानिक नाम :-
मेंढक = rana tigrina
बिल्ली = Felis domestic
कुत्ता = canis familiaris
गाय = bos indicus
मक्खी = musca domestica
कोशिका और कोशिका सरंचना –
कोशिका ( cell): कोशिका जीवों की आधार भूत सरंचना और कार्यात्मक इकाई है। ( Cell is the basic structure and functional unit of living) एक विशिष्ट परगमय कला ( differentially permeable membrane) से घिरी रहती है तथा इसमें प्राय स्वजन की छमता होती है जिससे कोशिका कहते है |
कोशिका विज्ञान ( cytology) जीव विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत कोशिका और उसके अंदर की वस्तुओ की रचना और कार्यकी ( physiology) का अध्ययन किया जाता हे |
पादप कोशिका और जंतु कोशिका में अंतर :-
पादप कोशिका:-
1 – पोधो में विकसित त्रिसतरिय कोशिका भीति पायी जाती हे जो मुख्य रूप से सेलूलोज़ की बानी होती हे।
2 – कुछ पोधो को छोड़कर जैसे कवक जीवाणु आदि अन्य सभी प्रकार में पर्णहरित पाया जाता हे।
3 – पादप कोशिका में सेट्रोसोमे नहीं पाया जाता हे।
4 – पादप कोशिका में प्राय लाइसोसोम नहीं पायी जाती हे।
5 – पादप कोशिका में रसधानी या रितिका होती हे।
6 – अधिकांश पादप कोशिका में तर्क केंदर नहीं होता हे।
जंतु कोशिका :-
1 – जंतु कोशिका में कोशिका भीति नहीं पायी जाती हे जो की कोशिका जीवदर्व्य झिली से डकी रहती हे।
2 – जन्तुवों में पर्णहरित नहीं पाया जाता हे।
3 – जंतु कोशिका में सेट्रोसोमे पाया जाता हे जो की कोशिका के विभाजन में काम करता हे।
4 – जंतु कोशिका में प्राय लाइसोसोम पायी जाती हे।
5 – जंतु कोशिका में रसधानी या रितिका नहीं होती हे।
6 – अधिकांश जंतु कोशिका में तर्क केंदर होता हे।
जंतु जगत का वर्गीकरण :-
जंतु जगत का वर्गीकरण जंतु विज्ञानं की वह शाखा हे जिसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार के जीव जन्तुवों का नामांकरण और वर्गीकरणं किया जाता हे , जिसके परिणामसवरुप संबधित जन्तुवों को एक निश्चित समूह में रखकर शेष जन्तुवों से पार्थक किया जाता हे।
जंतु जगत विज्ञान उन सभी जीवों को संज्ञांकित करता है जो पृथ्वी पर रहते हैं। जंतु जगत को कई तरीकों से वर्गीकृत किया जा सकता है।
एक प्रमुख तरीका होता है जंतु जगत को उनके शरीर रचना एवं क्रियाओं के आधार पर वर्गीकृत करना। इस तरीके के अनुसार, जंतु जगत को निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है:
- अण्डाधि जन्तु: जो जंतु होते हैं जो अपनी संतान को अंडे द्वारा पैदा करते हैं। मछलियों, बर्ड्स, एम्फिबियन्स आदि इस श्रेणी में आते हैं।
- स्तनधारी जंतु: जो जंतु होते हैं जो अपनी संतान को स्तनों के माध्यम से पैदा करते हैं। इस श्रेणी में गाय, भेड़, बैल, बंदर, शेर, चीता, एलेफेंट, व्हेल आदि आते हैं।
- संरच्चित जंतु: जो जंतु होते हैं जिनके शरीर में कोशिकाएं होती हैं जो एक संरचना का निर्माण करती हैं जो उन्हें उनकी आवश्यकताओं के अनुसार फार्म करने में मदद करती है। इस श्रेणी में जंतु जाते हैं जैसे कि कीट, मछर, मकड़ी, चिंगारी, अमीबा आदि।
- समांतर जंतु: जो जंतु होते हैं जो अपनी शरीरिक विशेषताओं के आधार पर वर्गीकृत होते हैं। इस श्रेणी में सांप, स्कॉर्पियन, कांगरू, जिराफ, चीता, कुत्ता, बिल्ली, उड़ने वाले जंतु जैसे मुर्गा आदि आते हैं।
- अण्डकोषी जंतु: जो जंतु होते हैं जो अपने शरीर को दो या अधिक भागों में विभाजित करते हैं जो अलग-अलग क्रियाएं करने की अनुमति देते हैं। इस श्रेणी में कीट, केचुए, कीड़े, सामुद्रिक जीव, जैसे कि केंचुए आदि आते हैं।
इस तरह से, जंतु जगत को वर्गीकृत करने के विभिन्न तरीके होते हैं जो उनकी विशेषताओं एवं शरीर की संरचना के आधार पर होते हैं।
जन्तुवो में पोषण:-
जीव को वृद्धि , विकास और अनुरक्षण और सभी प्रकार के जैविक परक्रमो को सुचारु रूप से चलाने के लिए आवश्यक सभी पोषक पदार्थो के अधिघृण को पोषण कहते हे।
पोषण के प्रकार :- भोजन की प्रकृति और उसके उपयोग करने के तरिके के आधार पर जन्तुवो में निम्नलिखित तीन प्रकार के पोषण पाए जाते हे :-
1- पूर्णभोजी पोषण ( Holozoic nutrition )
2- परजीवी पोषण ( Parasitic nutrition )
3- मरतपोशी जीवी ( saprozoic nutrition )
1- पूर्णभोजी पोषण ( Holozoic nutrition ):- पोषण जिसमे प्राणी अपना भोजन ठोस या तरल के रूप में जन्तुवो के भोजन ग्रहण करने की विधि द्वारा ग्रहण करते हे , इसमें शाकाहारी , मांशाहारी , सर्वाहारी , अपमार्जक ये सभी आते हे।
2- परजीवी पोषण ( Parasitic nutrition ):- इस प्रकार के पोषण में जीव दूसरे के संपर्क में स्थायी या अस्थायी रूप में रहकर उससे अपना भोजन प्राप्त करते हे। ऐसे जीवो का भोजन अन्य प्राणी के शरीर में मौजूद कार्बनिक पदार्थ होता हे। इस प्रकार के भोजन ग्रहण करने वाले जीव को परजीवी कहते हे।
3- मरतपोशी जीवी ( saprozoic nutrition ):- इस प्रकार के पोषण में जीव मृत जन्तुवो और पोधो के शारीर से अपना भोजन अपने शारीर की सतह से घुलित कार्बनिक पदार्थो के रूप में अवशोषित करते हे।
मानव शरीर के तंत्र :-
शरीर के भीतर ऐसे अंगो के कई समूह हे जो एक दूसरे से जुड़े हुए हे या एक दूसरे पर निर्भर हे और एक साथ मिलकर सामूहिक रूप में कार्य करते हे। समान किर्या वाले सहयोगी अंगो के एक समूह को तंत्र कहा जाता हे। शरीर की किर्या निम्न तंत्रो द्वारा सम्पादित होती हे –
1- पाचन तंत्र ( Digestive System ) :-
2- श्व्सन तंत्र ( Respiratory System ):-
3- उत्षर्जन तंत्र ( Excretory System ):-
4- तंत्रिका तंत्र ( Nervous System ):-
5- परिसंचरण तंत्र ( Circulatory System ):-
6- कंकाल तंत्र ( Skeleton system ):-
7 – अंतस्रावी तंत्र ( Endocrine System ):-
8- प्रजनन तंत्र ( Reproductive System ):-
9- पेशी तंत्र ( Muscular System ):-
1- पाचन तंत्र ( Digestive System ) :- पाचन तंत्र भोजन में उपस्थित जटिल पोषक पदार्थों (कार्बोहाइड्रेट, वसा व प्रोटीन) का निर्माण पोषक पदार्थों के बड़े-बड़े अणुओं के समायोजन से होता है और उन पोषक पदार्थों की इकाइयाँ आपस में निर्जलीकरण बंधों से जुड़ी होती हैं। वे जल से प्रतिक्रिया कर छोटी-छोटी इकाइयों में टूट जाती हैं और शरीर उन्हें खपने योग्य दशा में परिवर्तित कर लेता है। यही समस्त क्रिया पाचन कहलाती है। अतः ठोस, जटिल, बड़े-बड़े अघुलनशील भोजन अणुओं का विभिन्न एन्जाइमों की सहायता से तथा विभिन्न रासायनिक क्रियाओं द्वारा तरल, सरल और छोटे-छोटे घुलनशील अणुओं में निम्नीकरण को पाचन (Digestion) कहते हैं। पाचन क्रिया में भाग लेने वाले तंत्र को पाचन तंत्र (Digestive system) कहते हैं ।
मनुष्य का पाचन तंत्र (Human digestive system) : मनुष्य के पाचन तंत्र को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
A. आहार नाल (Alimentary canal) एवं
B. सम्बद्ध पाचन ग्रन्थियाँ (Associated digestive glands)
A. आहारनाल (Alimentary canal) :- मनुष्य या किसी भी कशेरुकी जन्तु की आहारनाल एक लम्बी, कुण्डलित नलिका होती है जो मुख (Mouth) से शुरू होती है और गुदा (Anus) में समाप्त हो जाती है।
मनुष्य के आहारनाल के प्रमुख भाग निम्नलिखित हैं-
1. मुखगुहा (Buccal cavity),
2. ग्रास नली (Oesophagus),
3. आमाशय (Stomach),
4. आँत (Intestine)।
1. मुखगुहा (Buccal cavity) :- मुखगुहा आहारनाल का पहला भाग है। मनुष्य का मुख एक दरार के समान होता है जो दोनों जबड़ों के बीच में स्थित एक गुहा में खुलता है, जिसे मुखगुहा कहते हैं। मुखगुहा के ऊपरी भाग को ‘तालू’ कहा जाता है। मनुष्य का मुखगुहा ऊपरी तथा निचले जबड़े से घिरी होती है। मुखगुहा को बन्द करने के लिए दो (ऊपरी तथा निचले) होंठ होते हैं। मुखगुहा में जीभ तथा दाँत होते हैं।
2. ग्रासनली (Oesophagus) :- मुखगुहा से लार से सना हुआ भोजन निगल द्वार (Gullet) के द्वारा ग्रासनली में पहुँचता है। ग्रासनली एक लम्बी नली होती है जो आमाशय में खुलती है। इसकी दीवार पेशीय तथा संकुचनशील होती है। भोजन के पहुँचते ही ग्रासनली की दीवार में तुरंग की तरह संकुचन या सिकुड़न और शिथिलन या फैलाव शुरू होता है जिसे क्रमाकुंचन (Peristolsis) कहते हैं । इसी प्रकार की गति के कारण भोजन धीरे-धीरे नीचे की ओर खिसकता है। ग्रासनली में किसी भी प्रकार की पाचन क्रिया नहीं होती है। ग्रासनली से भोजन आमाशय में पहुँचता है।
3. आमाशय (Stomach) :- आमाशय उदरगुहा (Abdominal Cavity) में बायीं ओर स्थित होता है। यह द्विपालिका थैली (Bilobed Sac) जैसी रचना होती है। इसकी लम्बाई लगभग 30 cm होती है। आमाशय का अग्र भाग कार्डिएक (Cardiac) तथा पिछला भाग पाइलोरिक (Pyloric) कहलाता है। कार्डिएक तथा पाइलोरिक के
बीच का भाग फुण्डिक (Fundic) कहलाता है। आहार-नाल के अन्य भागों की तरह आमाशय की भीतरी दीवार पर स्तम्भाकार एपिथीलियम (Columnar epithelium) कोशिकाओं का स्तर होता है। कोशिकाओं का यह स्तर जगह-जगह अंदर की ओर धँसा रहता है। इन धँसे भागों की कोशिकाएँ आमाशय ग्रन्थि या जठर ग्रन्थि (Gastric
glands) का निर्माण करती है। ये ग्रन्थियाँ आमाशय में जठर रस (Gastric juice) का स्रावण करती है ।
जठर ग्रन्थियों की कोशिकाएँ तीन प्रकार की होती हैं—
(a) श्लेष्मा कोशिकाएँ (Mucous cells)
(b) भित्तीय या अम्लजन कोशिकाएँ (Parietal or oxyntic cells) तथा
(c) मुख्य या जाइमोजिन कोशिकाएँ (Chief or Zymogen cells)।
इन तीनों प्रकार की कोशिकाओं के स्राव का सम्मिलित रूप जठर रस कहलाता है। जठर रस में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, श्लेष्मा या म्यूकस तथा निष्क्रिय पेप्सिनोजेन (Pepsinogen) होता है। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का स्राव अम्लजन कोशिकाओं (Oxynticcells) से होता है। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल निष्क्रिय पेरिसनोजेन की सक्रिय पेप्सिन (Pepsin) नामक एन्जाइम में परिवर्तित कर देता है। पेप्सिन भोजन के प्रोटीन पर कार्य करके उसे पेप्टोन में बदल देता है। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल जीवाणुनाशक की तरह
भी कार्य करता है तथा भोजन के साथ आने वाले जीवाणुओं को नष्ट कर देता है। म्यूकस का स्राव म्यूकस कोशिकाओं से होता है। म्यूकस आमाशय की दीवार तथा जठर ग्रन्थियों को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल एवं पेप्सिन एन्जाइम से सुरक्षित रखता है। काइम (Chyme) आमाशय के पाइलोरिक छिद्र के द्वारा छोटी आँत में पहुँचता है।
4. आँत (Intestine) : मनुष्य के सम्पूर्ण आँत को दो भागों में विभाजित किया गया है—
(a) छोटी आँत (Small intestine ) तथा (b) बड़ी आँत (Large intestine ) ।
(a) छोटी आँत (Small intestine) :- इसका प्रारम्भिक भागजो अंग्रेजी के अक्षर ‘U’ की तरह मुड़ा रहता है, ग्रहणी या पक्वाशय (Duodenum) कहलाता है।
ग्रहणी की लम्बाई लगभग 25 cm होती है जबकि शेष 30 cm लम्बा भाग इलियम (Ileum) कहलाता है । इलियम की दीवार की भीतरी सतह पर अंगुलियों के समान रचनाएँ पायी जाती हैं जिन्हें आन्त रसांकुर (Intestinal villi) कहते हैं । ये रसांकुर आँत की दीवार के अवशोषण सतह को बढ़ाते हैं। ग्रहणी तथा आमाशय के मोड़ के मध्य अग्न्याशय पाया जाता है। पित्त वाहिनी (Bile duct) तथा अग्न्याशय वाहिनी (Pancreaticduct) मिलकर एक सामान्य वाहिनी (Common duct) का निर्माण करती है। यह सामान्य वाहिनी ग्रहणी में खुलती है। छोटी आँत पीछे की ओर बड़ी आँत में खुलती है। छोटी आँत भोजन के पाचन में सहायता करती है तथा पचे हुए भोजन का अवशोषण
(Absorption) करती है। छोटी आँत आहारनाल का सबसे लम्बा भाग होता है। आहारनाल के इसी भाग में पाचन की क्रिया पूर्ण होती है। मनुष्य में इसकी लम्बाई लगभग 6 मीटर तथा चौड़ाई 2.5 सेमी होती है।
(b) बड़ी आँत (Large intestine) :- छोटी आँत आहारनाल का अगला भाग बड़ी आँत में खुलता है। बड़ी आँत भी दो भागों में विभक्त होता है। ये भाग कोलोन (Colon) तथा मलाशय (Rectum) कहलाते हैं। छोटी आँत तथा बड़ी आँत के जोड़ पर एक छोटी-सी नली होती है, जो सीकम (Caecum) कहलाता है। सीकम के शीर पर एक अंगुली जैसी रचना होती है, जिसका सिरा बन्द रहता है।
मनुष्य में पाचन क्रिया (Process of digestion in human beings):-
मनुष्य में भोजन का पाचन मुख से ही प्रारम्भ हो जाता है और यह छोटी आँत तक जारी रहता है। भोजन के मुख में अन्तर्ग्रहण (Ingestion) के बाद उसको दाँतों के द्वारा अच्छी तरह पीसा एवं चबाया जाता है जिससे वह महीन कणों में विभक्त हो जाता है। मुख में स्थित लार ग्रन्थियों (Salivary Glands) द्वारा स्रावित लार (Saliva) से दाँतों द्वारा पीसा भोजन अच्छी तरह मिल जाता है। लार में दो एन्जाइम टायलिन एवं लाइसोजाइम पाये जाते हैं। इनमें से टायलिन भोजन में उपस्थित मंड (स्टार्च) को माल्टोज शर्करा में अपघटित करता है, फिर माल्टेज नामक एन्जाइम माल्टोज शर्करा को ग्लूकोज में परिवर्तित कर देता है।
लाइसोजाइम नामक एन्जाइम भोजन में उपस्थित हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करने का काम करता है। इसके अतिरिक्त लार में उपस्थित शेष पदार्थ बफर (Buffer) का कार्य करते हैं। अब यह भोजन जीभ द्वारा ग्रसिका में ठेल दिया जाता है जहाँ से यह आमाशय में पहुँच जाता है। आमाशय में भोजन के पहुँचने पर हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI) भोजन से मिलकर टायलिन को निष्क्रिय कर देता है। साथ-ही-साथ यह भोजन को अम्लीय बना देताहै ।
इसके अतिरिक्त हाइड्रोक्लोरिक अम्ल भोजन में उपस्थित हानिकारक जीवाणुओं को भी नष्ट कर देता है। आमाशय में पहुँचा भोजन जठर रस से मिलकर अर्द्धतरल लुगदी के रूप में परिवर्तित हो जाता है। जठर रस में पेप्सिन, रेनिन तथा म्यूसिन नामक एन्जाइम उपस्थित होते हैं। पेप्सिन भोजन में उपस्थित प्रोटीन को पहले प्रोटियोजेज तथा फिर पेप्टोन में परिवर्तित करता है। रेनिन दूध में घुलनशील प्रोटीन केसीन (Casein) को कैल्सियम पैराकैसिनेट में बदलकर दूध को दही में परिवर्तित करता है। म्यूसिन जठर रस के अम्लीय प्रभाव को कम करता है।
मनुष्य के आमाशय में पाचन क्रिया :-
यह भोजन को चिकना बनाने का काम करता है तथा श्लेष्मा झिल्ली (Mucous membrane) पर एक रक्षात्मक आवरण बनाता है जिससे पाचक एन्जाइमों का प्रभाव आहारनाल पर नहीं पड़ता है। आमाशय में इसके पश्चात भोजन ‘काइम’ (Chyme) कहलाता है। आमाशय से काइम ग्रहणी (Duodenum) में पहुँचता है। यहाँ इसमें सबसे पहले यकृत से स्रावित पित्त रस (Bile juice) मिलता है। पित्त रस में किसी भी प्रकार का एन्जाइम नहीं पाया जाता है।
यह क्षारीय होता है तथा काइम की प्रकृति को भी अम्लीय से क्षारीय बना देता है। यह काइम की चर्बी को जल के साथ मिलाकर इमल्शन (Emulsion) बनाने में मदद करता है। यहाँ अग्न्याशय से स्रावित अग्न्याशय रस (Pancreatic juice) भी आकर काइम में मिलते हैं। अग्न्याशय रस में ट्रिप्सिन, (Trypsin), लाइपेज (Lipase), एमाइलेज (Amylase) कोर्बोक्सिपेप्टिडेस (Carboxypeptidase) तथा माल्टेज नामक एन्जाइम होते हैं।
ट्रिप्सिन प्रोटीन एवं पेप्टोन को पॉलीपेप्टाइड्स एवं ऐमीनो अम्ल में परिवर्तित करता है। एमाइलेज मंड (स्टार्च) को घुलनशील शर्करा में परिवर्तित करता है। लाइपेज इमल्सीकृत वसाओं को ग्लिसरीन तथा फैटी एसिड्स (Fatty acids) में परिवर्तित करता है। इन एन्जाइमों की क्रिया काइम पर होने के फलस्वरूप काइम काफी तरल हो जाता है और अब यह इलियम (Ileum) में पहुँचता है। यहाँ आन्त्ररस (Intestinal juice) की क्रिया काइम पर होती है। आन्त्र रस क्षारीय (pH-8) होता है। एक स्वस्थ मनुष्य में प्रतिदिन लगभग 2 लीटर आन्त्र रस स्रावित होता है।
आन्त्ररस में निम्नलिखित प्रकार के एन्जाइम उपस्थित होते हैं—
1. इरेप्सिन (Erepsin): यह शेष प्रोटीन एवं पेप्टोन को ऐमीनो अम्ल में परिवर्तित करता है।
2. माल्टेज (Maltase): यह माल्टोस को ग्लूकोज शर्करा में परिवर्तित करता है।
3. सुक्रेस (Sucrase) : यह सुक्रोस को ग्लूकोज एवं फ्रक्टोज में परिवर्तित करता है।
4. लेक्टेस (Lactase) : यह लैक्टोज को ग्लूकोज एवं ग्लेक्टोस मेंपरिवर्तित करता है।
5. लाइपेज (Lipase): यह इमल्शीकृत वसाओं को ग्लिसरीन एवं फैटी एसिड्स में परिवर्तित करता है।
अवशोषण (Absorption) :- छोटी आँत तक भोजन का पूर्ण पाचन हो जाता है अर्थात् भोज्य पदार्थ यहाँ इस रूप में परिवर्तित होजाता है कि आहारनाल की दीवार उसे अवशोषित कर सके । काइम के अवशोषण की मुख्य क्रिया छोटी आँत में ही होती है। छोटी आँत में स्थित रसांकुर (Villi) की कोशिकाएँ अवशोषित योग्य तरल काइम को अवशोषित करने के पश्चात् रुधिर एवं लसीका में पहुँचा देती है।
इस प्रकार पचे हुए काइम को ग्लूकोज तथा ऐमीनो अम्ल रुधिर कोशिकाओं में अवशोषित होकर रुधिर मिश्रित हो जाते हैं। लेकिन वसा अम्ल एवं ग्लिसरीन लसीका में अवशोषित होते हैं। इसके बाद ये पदार्थ रुधिर भ्रमण द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों में पहुँच जाते हैं। बिना पचा काइम (Undigested chyme) छोटी आँत से बड़ी आँत में पहुँच जाता है। बड़ी आँत काइम से जल को अवशोषित कर लेती है। शेष काइम मल के रूप में मलाशय (Rectum) में एकत्रित होकर गुदा (Annus) द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
स्वशन तंत्र :-
प्रत्येक जीव को जीवित रहने हेतु ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है क्योंकि ऑक्सीजन ही कार्बनिक भोज्य पदार्थों का ऑक्सीकरण या विघटन करके ऊर्जा प्रदान करते हैं। भोज्य पदार्थों के ऑक्सीकरण की यही प्रक्रिया ‘श्वसन’ (Respiration) कहलाती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जीवों में सम्पन्न होनेवाली वह ऑक्सीकरण क्रिया जिसमें ऑक्सीजन की उपस्थिति या अनुपस्थिति में जटिल भोज्य पदार्थों का सामान्य शरीर तापमान पर विभिन्न एन्जाइमों के नियंत्रण में क्रमिक अपघटन होता है, जिसके फलस्वरूप सरल भोज्य पदार्थ CO, अथवा जल एवं CO, का निर्माण होता है तथा ऊर्जा मुक्त होती है, श्वसन कहलाती है।
ऑक्सीजन के अन्तर्ग्रहण (Ingestion) करने का कार्य श्वसन तंत्र (Respiratory system) करता है। श्वसन तंत्र के द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका ऑक्सीजन की सम्पूर्ति प्राप्त करती है, साथ-ही-साथ ऑक्सीकरण उत्पादनों से मुक्त हो जाती है।
स्वशन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है-
A. बाह्य श्वसन (External respiration) :-
B. गैसों का परिवहन (Transportation of gases) :-
C. आन्तरिक श्वसन (Internal respiration):-
A. बाह्य श्वसन (External respiration):- प्राणी और वातावरण के बीच श्वसन गैसों (O, एवं CO2) के आदान-प्रदान अर्थात् ऑक्सीजन का शरीर में आना और कार्बन डाइऑक्साइड का शरीर से बाहर जाना बाह्य श्वसन कहलाता है चूँकि इस प्रकार की श्वसन क्रिया फुफ्फुसों (Lungs) में ही सम्पन्न होती है। इसलिए इसे फुफ्फुस श्वसन (Pulmonary respiration) भी कहते हैं। चूँकि इसमें ऑक्सीजन का रुधिर में मिलना तथा CO, का शरीर से बाहर निकलना सम्मिलित होता है, अतः इसे गैसीय विनिमय (Gaseous exchange) भी कहते हैं ।
B. गैसों का परिवहन (Transportation of gases):- गैसों अर्थात् ऑक्सीजन एवं कार्बन डाइऑक्साइड का फेफड़े से शरीर की कोशिकाओं तक पहुँचना तथा पुनः फेफड़े तक वापस आने की क्रिया को गैसों का परिवहन कहते हैं। श्वसन गैसों का परिवहन रुधिर परिसंचरण तंत्र की सहायता से होता है ।
C. आन्तरिक श्वसन (Internal respiration) :- शरीर के अन्दर रुधिर एवं ऊतक द्रव्य के बीच होने वाले गैसीय विनिमय को आन्तरिक श्वसन कहते हैं। फेफड़े में होनेवाले गैसीय विनिमय को बाह्य श्वसन कहते हैं। चूँकि आन्तरिक श्वसन कोशिका के अन्दर होता है। अतः इसे कोशिकीय श्वसन (Cellular Respiration) भी कहते
हैं। आन्तरिक श्वसन या कोशिकीय श्वसन में निम्नलिखित प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं |
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जीव विज्ञान की जानकारी को समझाने के लिए निम्नलिखित विषयों पर विस्तृत अध्ययन किया जाता है:-
संवेदनशीलता:- संवेदनशीलता जीव विज्ञान की शाखा है जो प्राणी जीवों के संबंधों, उनकी आवाज, उनके संचार पद्धतियों, उनके व्यवहार और उनके शरीर की विभिन्न विशेषताओं पर ध्यान केंद्रित करती है। इस शाखा में छात्रों को जीवों के संबंधों, उनकी आवाज, उनकी संचार पद्धतियों, उनके व्यवहार और उनके शरीर की विभिन्न विशेषताओं के बारे में सीखाया जाता है।
जीवन शाखा:- जीवन शाखा जीवों के जीवन चक्र, उनके जीवन कार्य, उनके जन्म और मृत्यु के अध्ययन पर ध्यान केंद्रित करती है। इस शाखा में, छात्रों को जीवों के जीवन चक्र के विभिन्न चरणों के बारे में शिक्षा दी जाती है और वे उनके प्रकारों और उनके जीवन चक्रों के बीच अंतर के बारे में भी सीखते हैं।
वनस्पति विज्ञान:- वनस्पति विज्ञान जीव विज्ञान की शाखा है जो वनसपति की विभिन्न विशेषताओं जैसे कि उनके संरचना, उनकी विकास प्रक्रिया, उनके जीवन चक्र, उनके फसलों का उत्पादन और बीजों के उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करती है। इस शाखा में, छात्रों को पौधों के अंतर्निहित संरचना और उनके जीवन चक्रों के बारे में सीखाया जाता है, जैसे कि पौधों की विकास प्रक्रिया और उनके अंतर्निहित संरचना जैसे कि रेखागणितीय संरचना, कोशिकाओं का संरचना और उनके उत्पादन के बारे में।
जीव जन्तु विज्ञान:-
जीव जन्तु विज्ञान जीव विज्ञान की शाखा है जो जीवों के शरीर, उनकी संरचना, उनके जीवन चक्र, उनके विकास, उनके आहार, उनकी वंश-प्रणाली और उनके संवर्द्धन पर ध्यान केंद्रित करती है। छात्रों को जीवों के शरीर की विभिन्न विशेषताओं जैसे कि उनके ऊतक, उनके अंग, उनके अवयव, उनके स्त्रोत, उनकी वंश-प्रणाली, उनके आहार और उनके संवर्द्धन के बारे में सीखाया जाता है।
जैव प्रौद्योगिकी:- मानव शरीर और स्वास्थ्य की अध्ययन के साथ-साथ जैव प्रौद्योगिकी भी जीव विज्ञान की एक शाखा है। इसमें छात्रों को बच्चों या दूसरे जीवों में विभिन्न रोगों के कारण और उनके उपचार के बारे में समझाया जाता है। इस शाखा में छात्रों को भीड़ जीवों के विकास, उनके पालन-पोषण की तकनीकों, विभिन्न जीवों की जेनेटिक इंजीनियरिंग और जीवों से प्राप्त किए गए उत्पादों के बारे में सीखाया जाता है।
इन सभी शाखाओं का अध्ययन करने से हम अपने आसपास की प्रकृति और जीव-जंतु विश्व के बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यह समझने में भी मदद करता है कि हमारी धरती की रक्षा करने के लिए हमें कैसे एक्शन लेने चाहिए। इसलिए, जीव विज्ञान एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है जो हमें हमारी प्रकृति और जीव-जंतु विश्व के बारे में सीखने का मौका देता है।