
Ancient History Notes in Hindi PDF
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प्राचीन इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता :-
इस सभ्यता का संपूर्ण काल 3500 ई. पू. – 1750 ई. पू. कार्बन डेटिंग पद्धति से इसका काल 2350 ई. पूर्व से 1750 ई. पूर्व निर्धारित किया गया है। यह एक काँस्य युगीन (Bronze Age) सभ्यता थी, जिसे सर्वप्रथम एक अँग्रेज़ चार्ल्स मेसन ने 1826 ई. में हड़प्पा नामक स्थान पर एक पुरास्थल के रूप में पहचाना। इसे हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है। यह सभ्यता सिन्धु नदी घाटी क्षेत्र में पनपी।
सिंधु घाटी सभ्यता की खोज का श्रेय रायबहादुर दयाराम साहनी को दिया जाता है, जिन्होंने पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक ‘सर जॉन मार्शल’ के निर्देशन में सन् 1921 में इस स्थल का उत्खनन कराया। इस सभ्यता का क्षेत्र त्रिभुजाकार था। अधिकांश विद्वानों के मतानुसार सिंधु सभ्यता के निर्माता द्रविड़ थे।
इस सभ्यता के लगभग आठ शहर मिले हैं-
1. हड़प्पा, 2. मोहनजोदड़ो, 3. चन्हुदड़ो, 4. कालीबंगा, 5. बनवाली, 6. धोलावीरा, 7. सूरकोटड़ा, 8. लोथल
• सभ्यता के सर्वाधिक स्थल गुजरात में मिले हैं।
• सभ्यता की नवीनतम खोज- धोलावीरा (गुजरात)
• सभ्यता की खोजा गया नवीनतम स्थल – बालाथल (उदयपुर)
• सभ्यता का विस्तार क्षेत्र पश्चिम में सुत्कांगेडोर
(बलूचिस्तान-पाकिस्तान) से, पूर्व में आलमगीरपुर ( उत्तर प्रदेश) तक और उत्तर में मोड़ा (कश्मीर) से दक्षिण में दायमाबाद (महाराष्ट्र) तक लगभग 13 लाख वर्ग किमी क्षेत्र सिन्धु घाटी सभ्यता की विशेषताएँ: यह एक नगरीय या शहरी सभ्यता थी।
सिन्धु घाटी सभ्यता की विशेषताएँ:-
यह एक नगरीय या शहरी सभ्यता थी।
• दो भागों में बँटा शहर जिसका पश्चिमी हिस्सा क़िलेबन्द व पूर्वी हिस्सा खुला होता था।
• ग्रिड शैली में बसावट, जिसमें सड़कें एक दूसरे को समकोण में काटती थीं।
• एक समान आकार की व पकी हुई ईंटों का प्रयोग।
• वृहद् अन्नागार – ये सिन्धु घाटी सभ्यता में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की उपस्थिति को दर्शाते हैं। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से विशाल अन्नागारों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
● सार्वजनिक स्नानागार यह मोहनजोदड़ो में मिला है। यह 54 मीटर लम्बा एवं 33 मीटर चौड़ा था, जिसमें 39×23×8 फीट (11.89×7.01×2.43 मीटर) का कुण्ड बना हुआ था। जलाशय के चारों ओर बरामदे व स्नान हेतु चबूतरे बने हुए थे। स्नानागार का फर्श पक्की ईंटों का बना हुआ था। सिंधु समाज मातृ सत्तात्मक था। सिंधुवासी मृतक के पैर दक्षिण दिशा में रखकर गाढ़ते थे।
● सिंधुवासियों को लिपि का ज्ञान था। इस लिपि को भाव चित्रात्मक लिपि भी कहा गया है। यह लिपि क्रमश: दाई ओर से बाई ओर तथा बाई ओर से दाई ओर लिखी जाती है। बी. बी. लाल ने इसे ‘बुस्ट्रोफेदम’ नाम दिया है। यह लिपि अभी तक पढ़ी नहीं गई है।
● सिंधुवासियों को लोहे की जानकारी नहीं थी।
● कृषि – गेहूँ व जौ मुख्य खाद्यान्न थे।
• लोथल से धान और बाजरे की खेती के साक्ष्य मिले हैं।
• कालीबंगा से जुते हुए खेत के प्राचीनतम प्रमाण प्राप्त।
• कूबड़ वाला बैल पूज्य
• घोड़े के प्रमाणिक साक्ष्य नहीं मिले हैं। कला: यहाँ बहुसंख्यक गुलाबी रंग के मृद भाण्ड प्राप्त हुए हैं, जिन पर लाल व काले रंग से चित्र बने हुए हैं। कलाः यहाँ बहुसंख्यक गुलाबी रंग के मृद भाण्ड प्राप्त हुए हैं, जिन पर लाल व काले रंग से चित्र बने हुए हैं।
• सील – अधिकांशत: सेलखड़ी (स्टेटाइड) की बनी हुई मूलत: वर्गाकार सीलें या मोहरें प्राप्त हुई हैं। कुछ सीलें हाथीदाँत की भी हैं। सबसे प्रसिद्ध सील पशुपति (योगी) की सील है।
• मोहनजोदड़ो से 12 सेन्टीमीटर लम्बी एक नर्तकी की काँस्य मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसमें जूड़ा बाँधे एक युवती नृत्य मुद्रा में दिखाई गई है।
● व्यापारः व्यापार का अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान था। यहाँ से कपास, गेहूँ, गन्ना, हाथी दाँत आदि का निर्यात होता था। इसके प्रमाण मेसोपोटामिया क्षेत्र से प्राप्त हड़प्पन सीलें व अभिलेख हैं।
सिन्धुवासी ताँबा गणेश्वर (राजस्थान), सोना कोलार (दक्षिण भारत) व लकड़ी कश्मीर से मँगाते थे। विभिन्न प्रकार की धातुओं का आयात दक्षिण और पूर्वी भारत, कश्मीर, कर्नाटक और नीलगिरी से होता था। सिंधुवासियों के मेसोपोटामिया, अफगानिस्तान व मध्य एशिया क्षेत्र के साथ व्यापारिक संबंध थे। क्रय-विक्रय सम्भवतः वस्तु विनिमय के माध्यम से किया जाता होगा।
धर्म-
● लिंग पूजा
• मातृ देवी की पूजा
• पशुपति (शिव) की पूजा
• पशु पूजा- कूबड़ युक्त बैल
• वृक्ष पूजा-पीपल का वृक्ष- अग्नि पूजा के परोक्ष प्रमाण (कालीबंगा व लोथल से अग्निकुण्ड की प्राप्ति)
अवसान- सिन्धु घाटी सभ्यता के अवसान की दो धारणाएँ हैं-
1. यकायक- बड़ी दुर्धटना जैसे भूकम्प आदि या आक्रमण द्वारा । मार्टिसर व्हीलर का मत है कि आर्यों के आक्रमण ने इस सभ्यता को नष्ट किया।
2. क्रमिक अवसान- ओरेल स्टीन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण सिन्धु घाटी सभ्यता की भारत को देन- 16 के गुणज में व्यवहृत पैमाना ।
• हल का प्रयोग व जुताई – आज भी पश्चिमोत्तर भारत में उसी पद्धति (कालीबंगा की शैली) से जुताई होती है। केश विन्यास (जूड़ा)- मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकी की मूर्ति की तरह का केश विन्यास आज भी प्रचलित है।
• धार्मिक प्रभाव: मातृ देवी की पूजा- इसका रूपान्तरण सनातन धर्म की विभिन्न देवियों के रूप में हुआ। पशुपति शिव की पूजा, पीपल वृक्ष की पूजा, पशु पूजा, लिंग पूजा आज भी प्रचलित है। सिंधु सभ्यता अथवा हड़प्पा सभ्यता के पतन के पश्चात् सैंधव प्रदेश में आर्यों द्वारा एक नवीन सभ्यता का विकास किया गया।
जिसे इतिहास में वैदिक सभ्यता के नाम से जाना जाता है :-
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने तिब्बत को आर्यों का आदि देश माना है। ‘पार्जितर’ ने भी इनके मत का समर्थन किया है। पी. गाइल्स ने आर्यों को समशीतोष्ण प्रदेश (विशेषत: हँगरी क्षेत्र) का मूल निवासी बताया है। दक्षिणी रूस के स्टेपी मैदानों को आर्यों का मूल निवास मानने वाले विद्वान नेहरिंग व पीकानो हैं ।
एल.डी. कल्ल आदि विद्वान आर्यों का मूल निवास कश्मीर क्षेत्र को मानते हैं।
सर्वाधिक मान्य सिद्धान्त : प्रो. मैक्समूलर द्वारा प्रतिपादित मध्य एशिया का सिद्धान्त।
भारत में आर्यों का आगमन लगभग 1500 ई.पू. का माना जाता है। प्रारम्भ में इनके अधिवास का प्रधान केन्द्र सप्त सैंधव प्रदेश (सिन्धु व उसकी सहायक नदियों का क्षेत्र) था, जो उत्तरवैदिक काल में गंगा यमुदा के मैदान में स्थानान्तरित हो गया।
वैदिक काल को दो भागों में बाँटा गया है-
1. ऋग्वैदिक काल – (1500 ई.पू. – 1000 ई.पू.),
2. उत्तरवैदिक काल- (1000 ई.पू. – 600 ई.पू.)
वैदिक सभ्यता का सामाजिक जीवनः समाज पितृसत्तात्मक था। ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों को समाज में सम्माननीय स्थान प्राप्त था। घोषा, अपाला आदि इस काल की प्रमुख विदुषी महिलाएँ थीं। महिलाएँ धार्मिक समारोहों एवं कबिलाई सभाओं में भाग लेती थी। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति शोचनीय हो गई थी, लेकिन इस काल में भी गार्गी, मैत्रेयी आदि विदुषी महिलाएं हुई।
● वैदिक लोगों का आर्थिक जीवन- वैदिक अर्थव्यवस्था मुख्यतः पशुपालन एवं कृषि पर आधारित थी। ऋग्वेद के प्रथम, चौथे एवं दसवें मंडल में कृषि विषयक तथ्य मिलते है। प्रारंभ में आर्यों को ‘यव’ (जौ) एवं ‘धान्य’ एवं गोधूम (गेहूँ) अनाजों की जानकारी थी।
• व्यापार-वाणिज्य: ऋग्वैदिक आर्यों को सोना एवं ताँबा धातु की जानकारी थी। चाँदी का उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। आर्यों ने लोहे को उपयोग में लिया था। व्यापारियों के लिए ऋग्वेद में ‘पणि’, ‘वणिज’ एवं ‘वणिक’ आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं। ऋग्वैदिक काल में व्यापार छोटे स्तर पर था तथा मुख्यतः वस्तु-विनिमय प्रणाली पर आधारित था।
• पशुपालनः आर्यों को गाय, घोड़ा, भेड़-बकरी, बैल, हाथी, कुत्ता, भैंस, गधा, ऊँट आदि पशुओं की जानकारी थी। ‘गाय’ ऋग्वैदिक काल में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पशु थी। संभवत: गाय विनिमय का साधन थी।
• दास प्रथाः ऋग्वैदिक काल से ही दास प्रथा विद्यमान थी। अधिकतर दास महिलाएँ थी।
● ऋग्वैदिक काल में आर्य कबीलों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिभ्रमण करते रहते थे परन्तु उत्तरवैदिक काल में ये एक क्षेत्र विशेष में स्थायी रूप से रहने लगे तथा ऋग्वैदिक ‘जन’ अब ‘जनपदों’ में रूपान्तरित हो गए।
• ऋग्वैदिक काल में प्रारम्भ में राजव्यवस्था गणतंत्रात्मक थी जो बाद में वंशानुगत (राजतंत्रात्मक ) हो गई।
• राजा जिन मंत्रियों की सहायता से कार्य करता था, उन्हें ‘रलिन’ कहा जाता था।
• यह एक ग्राम प्रधान (ग्रामीण) सभ्यता थी। आर्यों का प्रमुख धन्धा कृषि व पशुपालन था। वर्ष में दो फसलें ली जाती थी।
• आर्यों के जीवन में घोड़े एवं रथ का स्थान महत्त्वपूर्ण था। घोड़ा शक्ति का प्रतीक था। घोड़े एवं रथ के प्रयोग से आर्यों को अपने विस्तार में सहायता मिली। युद्धों में घोड़े के प्रयोग ने उन्हें व्यापक सफलता प्रदान की।
ऋग्वैदिक काल में अग्निदेव एक महत्त्वपूर्ण देवता थे, परंतु उनकी स्वतंत्र देवता के रूप में पूजा नहीं की जाती थी। आर्य लोहे से परिचित थे। कृषि औजार लोहे व लकड़ी से बने होते थे। लोहे को ‘कृष्ण अयस्क’ कहा जाता है।
● व्यापारी को ‘पणि’ कहा जाता था। व्यापार का माध्यम वस्तु विनिमय था। गाय मूल्य की प्रमाणिक ईकाई थी।
• आश्रम व्यवस्थाः ऋग्वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था नहीं थी। उत्तरवैदिक काल में आश्रम व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ। आश्रम प्रणाली का सर्वप्रथम उल्लेख ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में मिलता है। जबाला उपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने 4 आश्रमों का प्रतिपादन किया है। इसमें मनुष्य की संपूर्ण जीवन की आयु 100 वर्ष मानकर निम्न चार आश्रम निर्धारित किए गए-
• आश्रम व्यवस्थाः ऋग्वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था नहीं थी। उत्तरवैदिक काल में आश्रम व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ। आश्रम प्रणाली का सर्वप्रथम उल्लेख ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में मिलता है। जबाला उपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने 4 आश्रमों का प्रतिपादन किया है।
इसमें मनुष्य की संपूर्ण जीवन की आयु 100 वर्ष मानकर निम्न चार आश्रम निर्धारित किए गए-
1. ब्रह्मचर्य आश्रम (25 वर्ष की आयु तक )- इसमें व्यक्ति विद्याध्ययन करता था।
2. गृहस्थाश्रम (25-50 वर्ष )- इसमें व्यक्ति विवाह कर जीविकोपार्जन एवं गृहस्थी का निर्वहन करता था।
3. वानप्रस्थाश्रम (50-75 वर्ष)- इसमें व्यक्ति को वन की ओर गमन करना होता था।
4. संन्यासाश्रम (75-100 वर्ष)- इसमें व्यक्ति को सांसारिक मोह माया त्यागनी होती थी। आर्य मूर्ति पूजक नहीं थे बल्कि बड़े-बड़े यज्ञ करते थे।
प्राचीन इतिहास के चार वर्ण :-
ऋग्वैदिक काल के आरंभ में तीन वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य) थे। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त में पहली बार निम्न चार वर्णों का उल्लेख मिलता है-
● ब्राह्मण- ब्राह्मण वे थे जिनकी उत्पत्ति आदि पुरुष के मुख से हुई है। ब्राह्मण वर्ण का समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान था। इनका मुख्य कार्य वेदों का पठन-पाठन करना, भिक्षा तथा दान ग्रहण करना तथा धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न कराना था।
• क्षत्रिय क्षत्रियों की उत्पत्ति आदि पुरुष की भुजाओं से हुई मानी जाती है। इस वर्ण का कार्य बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना तथा देश अथवा राज्य को आंतरिक सुरक्षा
प्रदान करना था।
• वैश्य- वैश्य की उत्पत्ति आदि पुरुष की जंघाओं से हुई। यह कृषि, पशुपालन, उद्योग-धन्धे व व्यवसायों में संलग्न वर्ण था ।
शूद्र- इनकी उत्पत्ति आदि पुरुष के चरणों से हुई मानी जाती है। यह चौथा वर्ण था। आर्यों द्वारा विजित दास धीरे- धीरे शूद्र वर्ण बन गये। इसका समाज में निम्नतम स्थान था। तीनों वर्णों की सेवा करना शूद्र का मुख्य कार्य था। प्रारंभ में वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी लेकिन उत्तरवैदिक काल में धीरे-धीरे यह जन्म पर आधारित हो गई। जिसने बाद में जाति व्यवस्था का रूप ले लिया।
महात्मा बुद्ध (गौतम बुद्ध ): बौद्ध धर्म के प्रवर्तक ।
• जन्म 563 ई.पू. में वैशाख पूर्णिमा को कपिल वस्तु के निकट लुम्बिनी वन में। बचपन का नाम: सिद्धार्थ ।
• पिता शुद्धोधन (कपिलवस्तु के शाक्य गणराज्य के प्रधान) । माताः महामाया (कोलियागण की राजकन्या)
• पत्नी : यशोधरा व पुत्रः राहुल। जन्म के 7वें दिन माता की मृत्यु के पश्चात् विमाता प्रजापति गौतमी द्वारा लालन-पालन
• सिद्धार्थ के बारे में ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि वे या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेंगे या महान् साधु ।
• चार दृश्य जिसने सिद्धार्थ का जीवन परिवर्तित किया-
1. वृद्ध व्यक्ति
2. व्याधिग्रस्त मनुष्य
3. एक मृतक
4. एक संन्यासी
सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की आयु में गृह त्याग दिया। बौद्ध साहित्य में यह घटना ‘महाभिनिष्क्रमण’ कहलाती है। गृहत्याग के बाद उन्होंने गोरखपुर के समीप अनोमा नदी के तट पर संन्यास धारण किया। वैशाली के आलारकालाम उनके प्रथम गुरु बने । सिद्धार्थ को सारनाथ में निरंजना नदी के किनारे पीपल वृक्ष (Banyan Tree) के नीचे 48 दिन तक समाधि धारण करने के उपरान्त वैशाख पूर्णिमा की रात को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। ज्ञान प्राप्ति पर सिद्धार्थ ‘बुद्ध’ कहलाए तथा वह वृक्ष व स्थान क्रमश: बोधिवृक्ष एवं बोधगया कहलाया। ज्ञान प्राप्त होने की घटना को सम्बोधि कहा जाता है।
• बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ (ऋषिपतनम) के हिरण वन में उन पाँच ब्राह्मणों को दिया था जो पूर्व में उन्हें पथभ्रष्ट समझकर उनका छोड़कर चले गए थे। इसे ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ कहा जाता है। बुद्ध ने जनसाधारण की भाषा ‘मागधी’ में अपने उपदेश दिए। कौशल की राजधानी ‘ श्रावस्ती’ में उन्होंने सर्वाधिक उपदेश दिए।
• अश्वजित, उपालि, मोदग्ल्यायन, श्रेयपुत्र एवं आनन्द बुद्ध के प्रथम पाँच शिष्य थे। बिम्बिसार (मगध), उदयन (कोशाम्बी) एवं प्रसेनजित (कौशल) उनके मुख्य अनुयायी शासक थे। तपस्सु और कल्लिक बुद्ध के प्रथम शुद्र अनुयायी थे।
• 45 वर्ष तक धर्म का प्रचार-प्रसार करने के बाद 80 की आयु में 483 ई. पू. में कुशीनगर, मल्ल गणराज्य की राजधानी में वैशाख पूर्णिमा को बुद्ध की मृत्यु हो गई, जिसे बौद्ध साहित्य में ‘महापरिनिर्वाण’ कहा गया है। बुद्ध ने अपना अंतिम उपदेश शुभच्छ (कुशीनगर का परिव्राजक) को दिया।
• बुद्ध के जीवन से जुड़े चार पशु –
1. हाथी – बुद्ध के गर्भ में आने का प्रतीक
2. साँड – यौवन का प्रतीक
3. घोड़ा गृह त्याग का प्रतीक
4. शेर – समृद्धि का प्रतीक
● बुद्ध के जीवन की घटनाएँ :
महाभिनिष्क्रमण – गृहत्याग की घटना
सम्बोधि – पीपल वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त होने की घटना
• धर्मचक्रप्रवर्तन – उपदेश देने की घटना
• महापरिनिर्वाण – मृत्यु
• बौद्ध धर्म में संघ का अर्थ ‘बौद्ध भिक्षुओं’ का जनतांत्रिक संगठन था।
• प्रजापति गौतमी – महात्मा बुद्ध की विमाता। ये बुद्ध के संघ में प्रथम महिला के रूप में प्रविष्ट हुईं।
वैशाख पूर्णिमा के दिन ‘बुद्ध का जन्म’, ‘ज्ञान की प्राप्ति’ और ‘मृत्यु’ हुई थी। बौद्ध साहित्य : बौद्ध साहित्य पाली भाषा में लिखा गया है।
बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ये हैं-
1. सुत्तपिटक : बौद्धधर्म के सिद्धान्तों और उपदेशों का वर्णन।
यह पाँच भागों में विभक्त है-
1. दीर्घ निकाय, 2. मज्झिम निकाय, 3. संयुक्त निकाय, 4. अंगुतर निकाय एवं 5. खुद्दक निकाय ।
3. विनय पिटक: भिक्षु-भिक्षुणियों के संघ व उनके दैनिक जीवन व आचरण सम्बन्धी नियमों का वर्णन।
● अन्य प्रमुख बौद्ध ग्रंथ:
• जातक कथाएँ : पालि भाषा में रचित इन कथाओं में बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाएँ एवं बुद्ध कालीन धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन का वर्णन मिलता है।
• मिलिन्दपन्हो : प्रथम शताब्दी ई.पू. में नागसेन कृत पालि भाषा में रचित इस ग्रंथ में यूनानी शासक मिलिन्द और बौद्ध भिक्षु नागसेन के मध्य दार्शनिक विषय को लेकर हुए वाद-विवाद का वर्णन किया गया है।
• दीपवंश-महावंश : पालि भाषा में इन दोनों ग्रंथों की रचना श्रीलंका में की गई।
सारिपुत्र प्रकरण, बुद्ध चरित तथा सौन्दरानन्द : अश्वघोष द्वारा रचित ग्रंथ हैं, जो संस्कृत में लिखे गये हैं। अन्य ग्रन्थः महाविभाष (वसुमित्र) महावस्तु, दिव्यावदान अट्ठकथा
• अष्टांगिक मार्ग :
1. सम्यक् दृष्टि- चार आर्य सत्यों की सही परख
2. सम्यक् वचन- सत्य बोलना
3. सम्यक् संकल्प- भौतिक वस्तु तथा दुर्भावना का त्याग
4. सम्यक् कर्म- सत्य कर्म करना
5. सम्यक् आजीव- ईमानदारी से आजीविका कमाना।
6. सम्यक् व्यायाम- शुद्ध विचार ग्रहण करना।
7. सम्यक् स्मृति- मन, वचन तथा कर्म की प्रत्येक क्रिया के प्रति सचेत रहना।
8. सम्यक् समाधि- चित्त की एकाग्रता ।
• मध्यम प्रतिपदा सिद्धान्त : बुद्ध द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य को न तो विलासिता में ही रत रहना चाहिए और न ही अपने शरीर को कष्ट देना चाहिए, बल्कि उसे शुद्धतापूर्वक नैतिक जीवन व्यतीत करना चाहिए।
● बौद्ध धर्म मूलत: अनीश्वरवादी व अनात्मवादी है। बुद्ध का पुनर्जन्म में विश्वास था।
• प्रतीत्य समुत्पाद : प्रतीत्य का अर्थ है -‘इसके होने से’ और समुत्पाद का अर्थ है- ‘यह उत्पन्न होता है’ अर्थात् किसी कारण से कोई बात उत्पन्न होती है। प्रत्येक घटना के पीछे
कार्य-कारण का सम्बन्ध है। कार्य-कारण का यही सिद्धान्त प्रतीत्यसमुत्पाद के नाम से जाना जाता है।
बौद्ध सम्प्रदायः
• हीनयान : यह परम्परावादियों का संघ है, जो बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों को बिना किसी परिवर्तन के पूर्ववत् बनाए रखना चाहते थे। इस सम्प्रदाय के लोग मगध, ब्रह्मा तथा श्रीलंका में थे।
• महायान : यह परिवर्तनवादी विचारधारा का समर्थक है जो बौद्ध धर्म के प्राचीन स्वरूप में समयानुसार परिवर्तन एवं सुधार को महत्व देता है। इसमें बुद्ध को देवत्व प्रदान कर उनकी मूर्तिपूजा की जाने लगी।
• वज्रयान : इस सम्प्रदाय के अनुयायी बुद्ध को अलौकिक शक्तियों वाला पुरुष मानते थे। उनका मंत्र, हठयोग तथा तांत्रिक क्रिया- कलापों में विश्वास था। यह सम्प्रदाय तिब्बत एवं चीन में विशेष रूप से प्रचलित हुआ।
● तीर्घकर: जैन धर्म के संस्थापक एवं कैवल्य ज्ञान प्राप्त महात्माओं को तीर्थंकर माना गया है। जैन धर्म में 24 तीर्थकर हैं, जिनमें ऋषभदेव (प्रथम तीर्थकर व जैन धर्म के संस्थापक), पार्श्वनाथ (23वें तीर्थकर) व महावीर स्वामी (24वें तीर्थकर) मुख्य हैं। पार्श्वनाथ: जैन धर्म के 23वें तीर्थकर, जन्म 8वीं सदी ई. पू. में ।
• पिता: अश्वसेन (काशी नरेश) । माता : वामा, पत्नी : प्रभावती (कुशस्थल देश की राजकुमारी)
• 30 वर्ष की आयु में गृह-त्याग। सम्मेद शिखर पर्वत (वर्तमान झारखण्ड) पर ज्ञानप्राप्ति। पार्श्वनाथ का प्रतीक चिन्ह सर्प है।
• पार्श्वनाथ के अनुयायियों को ‘निर्ग्रन्थ’ कहा जाता था। इन्होंने नारियों को अपने धर्म में प्रवेश दिया।
प्राचीन भारत नोट्स पीडीऍफ़ में जैन धर्म के बारे में:-
महावीरः जैन धर्म के 24वें व अंतिम तीर्थकर महावीर स्वामी का जन्म कुण्डग्राम (वैशाली) में हुआ ।
• पिता : सिद्धार्थ (वज्जि संघ के प्रमुख) । माता : त्रिशला (वैशाली के राजा चेटक क़ी बहन)
• बचपन का नाम : वर्द्धमान, पत्नी : यशोदा । पुत्री : अणोज्जा (प्रियदर्शना) । दामाद : जामालि
• वर्द्धमान ने माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् 30 वर्ष की आयु में अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन से अनुमति लेकर संन्यास लिया।
• 12 वर्षों की कठोर तपस्या तथा साधना के पश्चात् जम्भिक ग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। तब वे केवलिन, जिन (विजेता), और निर्ग्रन्थ कहलाये तथा धर्म जैन धर्म कहलाया।
• 30 वर्षों तक धर्म का प्रचार करने के बाद 72 वर्ष की आयु में राजगृह के समीप पावापुरी में राजा हस्तिपाल के सानिध्य में शरीर त्याग दिया, उनकी मृत्यु को जैनमत में निर्वाण कहा गया है।
• महावीर की मृत्यु के बाद केवल एक गणधर सुधर्मन जीवित बचा जो जैनसंघ का उनके बाद प्रथम अध्यक्ष बना।
जैन धर्म के सिद्धान्त एवं शिक्षाएँ –
• अनिश्वरवादी : जैन अनुयायी ईश्वर को नहीं मानते। उनके अनुसार सृष्टि अनादि और अनन्त है।
• महावीर का आत्मा के पुनर्जन्म सिद्धान्त तथा कर्म के सिद्धान्त में विश्वास था।
• त्रिरत्न : आत्मा को कर्म के बंधन से मुक्त करने के लिए त्रिरत्न आवश्यक हैं, जो निम्न हैं-
1. सम्यक् ज्ञान- वास्तविक ज्ञान, 2. सम्यक् दर्शन- जैन तीर्थंकरों में विश्वास रखना1, 3. सम्यक् चरित्र- पंच महाव्रत का पालन।
• स्यादवाद का सिद्धान्त: स्यादवाद ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धान्त है। इस मत के अनुसार किसी वस्तु के अनेक धर्म (पहलू) होते है तथा व्यक्ति अपनी सीमित बुद्धि द्वारा केवल कुछ ही पहलूओं को जान सकता है। अतः सभी विचार अंशत: सत्य होते हैं। पूर्ण ज्ञान तो कैवलिन के लिए ही सम्भव है।
• भगवान महावीर का प्रतीक चिन्ह सिंह है। उन्होंने अपने उपदेश प्राकृत भाषा में दिए जो जन सामान्य की भाषा थी।
● सम्प्रदाय का विभाजन: महावीर स्वामी की मृत्यु के पश्चात् लगभग दो शताब्दियों तक जैन अनुयायी संगठित रहे किन्तु मौर्य काल में जैनधर्म दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया-(1) दिगम्बर सम्प्रदाय- इस सम्प्रदाय के साधुओं के लिए सम्पत्ति के पूर्ण बहिष्कार का प्रावधान है। इस सम्प्रदाय के साधु दिशाओं को ही वस्त्र समझकर नंगे रहते हैं। भद्रबाहु ने इनका नेतृत्व किया। (2) श्वेताम्बर सम्प्रदाय- इस सम्प्रदाय के साधु- साध्वियाँ सफेद वस्त्र धारण करते हैं, जिन्हें वे अहिंसा एवं शान्ति का प्रतीक समझते हैं। स्थूलबाहु ने इनका नेतृत्व किया।
जैन सभाएँ : प्रथम जैन सभा: यह सभा चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल (322-298 ई. पू.) में पाटलीपुत्र में भद्रबाहु एवं सम्मूति विजय के निरीक्षण में हुई। इसमें जैन धर्म के महत्त्वपूर्ण 12 अंगों का प्रणयन व धर्म का श्वेताम्बर व दिगंबर में विभाजन हुआ। द्वितीय जैन सभा: यह सभा छठी शताब्दी (512 ई.) में गुजरात के वल्लभी नामक स्थान पर देवर्धिगणी की अध्यक्षता में हुई। इसमें जैन धर्मग्रंथों को अंतिम रूप से संकलित कर लिपिबद्ध किया गया। बीच में एक जैन सभा चौथी शताब्दी में निम्न स्थानों
पर हुई थी- 1. मथुरा : अध्यक्ष (आर्य स्कन्दिल) एवं
2. वल्लभी (अध्यक्ष-नागार्जुन सूरी)
• महावीर स्वामी के 11 शिष्य थे जो गणधर या गंधर्व कहलाये थे। जैन धार्मिक ग्रंथ ‘आगम’ कहलाते हैं।
● मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य आचार्य भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण कर उनके साथ दक्षिण भारत में चले गये थे।
Ancient History Notes पीडीऍफ़ में मगध साम्राज्य के बारे में :-
‘मगध’ का सबसे पहले उल्लेख ‘अथर्ववेद’ में मिलता है। यह राज्य दक्षिण बिहार (वर्तमान पटना एवं गया) में विस्तृत था। इसकी प्रारम्भिक राजधानी राजगृह (गिरिव्रज) थी, जो बाद में पाटलिपुत्र स्थानान्तरित कर दी गई। छठी शताब्दी ई.पू. के लगभग मध्य में हर्यक वंश (544- 412 ई.पू.) द्वारा मगध महाजनपद का साम्राज्यिक विस्तार शुरू हुआ जो नागवंश (412 ई.पू.- 344 ई.पू.) एवं नंद वंश (344 ई.पू.- 322/321 ई.पू.) तक अबाध रूप से जारी रहा। उस समय संपूर्ण उत्तरी भारत में मगध एक विशाल साम्राज्य के रूप में स्थापित हुआ।
मगध साम्राज्य के प्रमुख शासक :
• बिम्बिसार (544-492 ई. पू.): हर्यक वंश के संस्थापक जो बुद्ध एवं महावीर दोनों के समकालीन थे। इनकी राजधानी राजगृह थी, जिसका वास्तुकार महागोविन्द था। ‘जीवक’ इस काल का प्रसिद्ध वैद्य तथा ‘महागोविन्द’ प्रसिद्ध वास्तुकार था। बिम्बिसार को उनके पुत्र अजातशत्रु ने कैद कर लिया और 492 ई. पू. में उसकी मृत्यु हो गई।
• अजातशत्रु (492 – 460 ई. पू.): बचपन का नाम कुणीक । वह जैन व बौद्ध दोनों धर्मों का अनुयायी था।
-अजातशत्रतु के जीवनकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना वज्जिसंघ पर उसकी विजय थी।
-अजातशत्रु ने राजगृह में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन किया तथा बुद्ध के अवशेषों पर स्तूप का निर्माण करवाया।
-अजातशत्रु को ‘पितृहन्ता’ कहा गया है। अजातशत्रु की उसके पुत्र उदायिन द्वारा हत्या कर दी गई थी।
• उदायिन (460-444 ई. पू.): पाटलीपुत्र (गंगा और सोन नदी के संगम पर स्थित) राजधानी बनाई गई। जैन धर्म का अनुयायी। शिशुनाग (412 – 394 ई. पू.): शिशुनाग वंश का संस्थापक।
-हर्यक वंश के अन्तिम शासक नागदशक के शासनकाल में शिशुनाग एक आमात्य था एवं बनारस का गवर्नर था।
-मगध की राजधानी पुनः गिरिव्रज (राजगृह) बनाई गई। शिशुनाग ने वैशाली को मगध की दूसरी राजधानी बनाया।
• कालाशोक (394-366 ई. पू.): वैशाली के स्थान पर पाटलिपुत्र `को राजधानी बनाया गया। द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन करवाया। महापद्मनन्द (उग्रसेन): शिशुनाग वंश का अन्त करने वाला एवं नन्द वंश का संस्थापक। पुराणों में उसे ‘सर्वक्षत्रान्तक’ अर्थात् सब क्षत्रियों का नाश करने वाला तथा बौद्ध ग्रन्थों में उसे उग्रसेन अर्थात् ‘भयानक सेना का स्वामी’ कहा गया है।
• घननन्दः अन्तिम एवं सर्वाधिक प्रसिद्ध नन्द शासक जो सिकन्दर महान् का समकालीन था। इसी के शासनकाल में सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया था।
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पारसिक (ईरानी)
ॐ डेरियस-I (Darius 1 : 522-486 ई. पू.): यह प्रथम ईरानी आक्रान्ता था। दारा (डेरियस-I) ने गन्धार, कम्बोज, पश्चिमी प्रान्त और पूरे सिन्ध प्रान्त पर अधिकार कर लिया था।
● सिकन्दर महान् (यूनानी आक्रान्ता): सिकन्दर मकदूनिया (मैसिडोनिया) के क्षत्रप फिलिप द्वितीय (359-336 ई. पू.) का पुत्र था। पिता की मृत्यु के बाद 20 वर्ष की आयु में वह राजा बना। सिकन्दर का जन्म 356 ई. पू. में हुआ।
● भारत विजय के लिए सिकन्दर बल्ख (बैक्ट्रिया) से चलकर काबुल के मुख्य मार्ग से होते हुए हिन्दुकुश पर्वत पार कर भारत आया। 327 ई. पूर्व में उसने भारत में प्रवेश किया।
• सिकन्दर के आक्रमण के समय पूर्वी गान्धार (राजधानी तक्षशिला) पर आम्भि का शासन था। आम्भि ने सिकन्दर से युद्ध के स्थान पर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।
यूनानी आक्रमण
• हाइडेस्पेस का युद्ध : यह युद्ध झेलम और चिनाब के मध्यवर्ती प्रदेश के राजा पोरस (पुरु) और सिकन्दर के मध्य झेलम नदी के पास हुआ, जिसमें भीषण युद्ध के पश्चात् सिकन्दर की विजय हुई। लेकिन जब पोरस को बन्दी बनाकर सिकन्दर के सामने लाया गया, तो सिकन्दर ने उनसे पूछा कि ‘बताओ तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाए।” तब पोरस ने गर्व से कहा “जैसा एक राजा दूसरे राजा से करता है।” पोरस के इस जवाब से प्रसन्न होकर सिकन्दर ने उसका राज्य वापस लौटा दिया।
• पोरस के विरुद्ध सफलता प्राप्त करने के पश्चात् सिकन्दर ने ‘निकैया’ (विजयनगर) और ‘बेऊकेफला’ नामक दो नगरों की स्थापना की। निकैया नगर की स्थापना विजय के उपलक्ष्य में की गई।
मौर्य साम्राज्य से पूर्व भारत पर मगध साम्राज्य का शासन था। इसका अंतिम शासक घननन्द था। यह सिकन्दर महान का समकालीन था। सिकन्दर के जाने के पश्चात् मगध साम्राज्य में अशान्ति व अव्यवस्था फैल गई थी। परिणामस्वरूप चंद्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य (विष्णु गुप्त) की सहायता से मगध सत्ता पर अधिकार कर लिया व मौर्य साम्राज्य की
स्थापना की। चन्द्रगुप्त मौर्य ने धीरे-धीरे चाणक्य की सहायता से संपूर्ण भारत को राजनीतिक एकता के सूत्र में पिरोया। मौर्य साम्राज्य भारत का प्रथम व्यापक तथा भारतीय उपमहाद्वीप का विशालतम साम्राज्य था। मौर्य साम्राज्य हिन्दुकुश पर्वत से कावेरी नदी तक फैला था । मौर्यकाल में सर्वप्रथम सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की गई जिसे सम्राट अशोक ने “जीओ और जीने दो” के सिद्धान्त पर आगे बढ़ाया। मौर्यकालीन इतिहास को जानने हेतु साहित्य में पुराण, विशाखदत्त का ‘मुद्राराक्षस’ और कौटिल्य (चाणक्य) का ‘अर्थशास्त्र’ प्रमुख हैं। लौह विजय के सिद्धान्त का प्रतिपादन’कौटिल्य’ ने किया ।
● मेगस्थनीज व उसकी इंडिका- मेगस्थनीज यूनानी राजदूत था जिसे सेल्यूकस निकेटर ने चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा था। मेगस्थनीज लगभग 304 से 299 ई.पू. तक पाटलिपुत्र में रहा था। मेगस्थनीज की इंडिका हमें मूल रूप में उपलब्ध नहीं है। उसके अंश हमें यूनानी-रोमन लेखकों जस्टिन, प्लूटार्क, स्ट्रेबो, प्लिनी, एरियन की रचनाओं में मिलते है।
Ancient History Notes मौर्यकालीन शासक :-
चन्द्रगुप्त मौर्य (322-298 ई.पू.): चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म 345 ई. पू. में हुआ था।
● यूनानी लेखों में मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य के नाम के भिन्न-भिन्न रूपान्तर मिलते हैं। स्ट्रैबो, एरिअन और जस्टिन इसे ‘सैण्ड्रोकोट्स’ के नाम से पुकारते है। एपिअन और प्लूटार्क इसे ‘ऐण्ड्रोकोट्स’ के नाम से पुकारते हैं।
• चाणक्य ने 322 ई. पू. में चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक किया। चन्द्रगुप्त ने ‘राजकीलम’ खेल के माध्यम से तक्षशिला के आचार्य चाणक्य को प्रभावित किया था।
• यूनानी शासक सेल्युकस ने 305 ई. पू. में भारत पर आक्रमण किया था। इस आक्रमण में चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस को पराजित किया था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस निकेटर की पुत्री हेलन से विवाह किया।
• चन्द्रगुप्त मौर्य प्रथम शासक था जिसने नर्मदा नदी के दक्षिण में भी अपना विजय अभियान चलाया। पाटलिपुत्र चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य की राजधानी थी।
• चन्द्रगुप्त के शासनकाल के अन्त में मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा। उसके पश्चात् वे भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला (मैसूर) में तपस्या करने चल गए। चंद्रगिरि पर्वत पर स्थित ‘चंद्रगुप्तवस्ति’ नामक मंदिर में उन्होंने 298 ई. पू. के लगभग सल्लेखना पद्धति द्वारा प्राण त्याग दिए।
• शक क्षत्रप रूद्रदामन के जूनागढ़ लेख में यह उल्लेख मिलता है कि इस क्षेत्र में चन्द्रगुप्त मौर्य ने पुष्यगुप्त वैश्य को राज्यपाल नियुक्त किया जिसने सौराष्ट्र के कृषकों को सिंचाई सुविधा देने के लिए सुदर्शन झील का निर्माण कराया।
बिन्दुसार (298-273 ई.पू.): 298 ई.पू. में चन्द्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र बिन्दुसार उसका उत्तराधिकारी बना। यूनानी लेखकों ने उसे’ अमित्रोकेडीज’ कहा है, जिसका संस्कृत रूपान्तरण ‘अमित्रघात’ (शत्रुहंता का शत्रुओं को नष्ट करने वाला) होता है।
• उसके शासनकाल के प्रारंभ में कौटिल्य (चाणक्य) और बाद में ‘खल्लाटक’ प्रधानमंत्री रहा।
• सीरिया के सम्राट एण्टियोकस प्रथम ने डायमेकस तथा मिस्र के शासक टॉलेमी फिलाडेल्फस ने डायोनियस को राजदूत के रूप में बिन्दुसार के राजदरबार में नियुक्त किया था।
● अशोक महान (273-232 ई.पू.): बिन्दुसार का पुत्र अशोक विश्व के महानतम सम्राटों में से एक था।
• राज्यारोहण से चार वर्ष के सत्ता संघर्ष के पश्चात् 269 ई. पू.
• में अशोक का औपचारिक राज्याभिषेक हुआ। अशोक ने 37 वर्ष तक शासन किया व उसकी मृत्यु 232 ई. पूर्व में हुई।
• उसके अभिलेखों में उसे देवानामप्रिय, देवनांप्रियदसि की उपाधियों से संबोधित किया गया है। मास्की, गुर्जरा, नेत्तुर तथा उद्यगोलम शिलालेखों में उसका नाम अशोक मिलता है। पुराणों में अशोक को अशोक वर्धन कहा गया है।
• अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों में अशोक ब्राह्मण धर्म का अनुयायी व शिव का उपासक था। कलिंग युद्ध के बाद वह बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। अशोक को बौद्ध भिक्षु उपगुप्त ने बौद्धधर्म में दीक्षित किया। अशोक के बुद्ध, धम्म व संघ का अभिवादन भाब्रू से प्राप्त लघु शिलालेख में होता है। इस में अशोक ने ‘त्रिरत्न’ में आस्था प्रकट की है।
• अशोक का साम्राज्य विस्तार- उत्तर-पश्चिम में हिन्दुकुश, उत्तर में हिमालय की तराई से लेकर दक्षिण में मैसूर तक, पश्चिम में सौराष्ट्र और सोपारा से लेकर पूर्व में बंगाल तक।
• अशोक का धम्म- अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिए अशोक ने जिन आचारों की संहिता प्रस्तुत की उसे उसके अभिलेखों में ‘धम्म’ कहा गया है। अशोक ने धम्म विजय
की चर्चा अपने 13वें शिलालेख में की है। वस्तुत: अशोक भारतीय इतिहास में प्रथम शासक था, जिसने राजनीतिक जीवन में हिंसा के त्याग का सिद्धान्त सामने रखा।
• अशोक द्वारा धम्म प्रचार हेतु निम्न कार्य करवाये गये- धम्म यात्राओं का प्रारम्भ। अपने राजकीय अधिकारियों-राज्जुक, प्रादेशिक व युक्त को जनता के बीच जाकर धर्म के प्रचार व उपदेश करने का आदेश दिया। अशोक ने धर्म की एकता स्थापित करने के लिए धर्म महामात्रों की नियुक्ति की।
● अशोक ने पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगति (250 ई. पू.) का आयोजन किया जिसके अध्यक्ष मोगलुिपत्ततिस्स थे। इस संगति में बौद्ध ग्रंथों का अंतिम रूप से सम्पादन किया गया व तीसरा पिटक अभिधम्म पिटक जोड़ा गया। तीनों पिटकों को ‘त्रिपिटक’ के नाम से संबोधित किया गया। इस संगीति के बाद बौद्ध धर्म के भारत से बाहर प्रचार-प्रसार की प्रक्रिया आरम्भ हुई।
• ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार अशोक ने श्रीनगर व देवपाटन नगरों की स्थापना करवाई।
• अशोक की मृत्यु 232 ई. पू. में हुई। अशोक की मृत्यु के बाद से मौर्य साम्राज्य के पतन की क्रिया आरम्भ हो गई। प्रशासन में अशोक द्वारा सुधारः अशोक ने प्रशासन को ‘पितृ सिद्धान्त’ से जोड़ दिया तथा अपने धौली अभिलेख में घोषित किया कि ‘सारी प्रजा मेरी संतान’ है तथा उसके सुख-दुख की चिंता तथा निवारण सरकार का दायित्व है।
सामान्यतः अशोक के अभिलेखों में तीन लिपियों का प्रयोग किया गया है। ये लिपियाँ हैं-
1. ब्राह्मी लिपि
2. खरोष्ठी लिपि- मनसेरा (हजारा-पाकिस्तान) ओर शाहबाज़गढ़ी (पेशावर-पाकिस्तान) अभिलेखों में प्राप्त । यह लिपि दाईं से बाईं ओर लिखी जाती है।
3. ग्रीक (यूनानी) एवं अरामाइक लिपि- ‘शार-ए-कुजा अभिलेख- द्विभाषीय अभिलेख है। काबुल नदी के किनारे जलालाबाद के पास से प्राप्त लमघान शिलालेख अरामाइक
लिपि का महत्वपूर्ण शिलालेख है।’
अशोक के अभिलेखों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) शिलालेख
(2) लघु शिलालेख
(3) स्तम्भ लेख
(4) लघु स्तम्भ लेख
(5) गुहालेख ।
● शिलालेख: ये पहाड़ों की शिलाओं पर लिखित अभिलेख है। ये निम्न है-
• वृहद शिलालेखः ये 14 विभिन्न लेखों के समूह हैं जो 8 स्थानों पर प्राप्त हुये हैं। शाहबाजगढ़ी व मनसेहरा (पाकिस्तान), कालसी (उत्तराखण्ड), गिरनार (गुजरात), धौली व जोगढ़ (उड़ीसा), एर्रागुड़ी (आन्ध्रप्रदेश), सोपारा (महाराष्ट्र) ।
* पाँचवें अभिलेख में अशोक के राज्यारोहण के 13वें वर्ष के बाद धम्म महामात्र की नियुक्ति का उल्लेख है।
* आठवें शिलालेख में सम्राट अशोक द्वारा आखेटन का त्याग तथा धम्म यात्रा करने की सूचना दी गई है। दूसरे व ग्यारहवें शिलालेख में अशोक की धम्म नीति की व्याख्या की गई है।
* तेरहवाँ अभिलेख सबसे महत्वपूर्ण अभिलेख है। इस अभिलेख में कलिंग विजय, उसके हृदय परिवर्तन तथा उसके द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने की सूचना मिलती है।
* लघु शिलालेख- अशोक के लघु शिलालेख विभिन्न क्षेत्रों जैसे- रूपनाथ, सासाराम, दिल्ली, गुर्जरा, भाब्रू (बैराठ), मास्की, ब्रह्मगिरी, सिद्धपुर, जटिंग रामेश्वर, एर्रागुड्डी, गोविमठ, पालकी गुण्डु, राजुल मंडगिरि तथा उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर में स्थित अहरौरा से प्राप्त हुए हैं। मास्की, गुर्जरा, उदयगोलम तथा नेट्टर (कर्नाटक) से प्राप्त शिलालेखों में अशोक को उसके व्यक्तिगत नाम से पुकारा गया है। मास्की शिलालेख में उसका नाम ‘अशोक देवानामप्रिय’ मिलता है। मास्की शिलालेख रायचूर (कर्नाटक) में स्थित है।