Agriculture Notes PDF in Hindi Free Download

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आज हमारी टीम आपके लिए लेकर आयी हे एक बहुत ही शानदार Agriculture Notes Free PDF जो की आपको जनरल साइंस के परीक्षा में क्वेश्चन अंसवेरस को करने में बहुत ही ज्यादा हेल्प करने वाली हे तो आप इस कर्षि विज्ञानं के नोट्स को अच्छे से ध्यान से पढ़े और अपनी परीक्षा की तैयारी को और बेहतर करिये।

भूमि पर फसल एवं इसके उत्पादन से सम्बन्धित क्रमबद्ध ज्ञान को कृषि विज्ञान (Agriculture science) कहा जाता है। जमीन को जोतकर उस पर फसलों और पेड़-पौधों को उगाने के मानवीय प्रयत्न को कृषि कहा जाता है। पशुपालन को भी कृषि में ही शामिल किया जाता है।

Agriculture Notes PDF In Hindi में आपको आज सभी प्रकार के एग्रीकल्चर के टॉपिक्स जैसे कृषि विज्ञान की शाखाएँ, कृषि के प्रकार, कृषि के विशेष प्रकार, मृदा, बीज, फसलों का वर्गीकरण, फसलें और अनुकूल भौगोलिक दशाएँ, फसलें और उनके उत्पादक, फसलें और उनके उत्पादक राज्य, फसलें और उनकी किस्में, फसल, फल एवं सब्जियों के उत्पत्ति-स्थल, फसलों, फलों |

अन्य के लिए दी गई संज्ञाएँ, फलों तथा सब्जियों में रंग, कडुवापन आदि का कारण, पादप पोषण, खर-पतवार, पादप रोग विज्ञान, फसल सुरक्षा, कृषि क्रांतियाँ, स्थानान्तरणशील कृषि पद्धतियाँ, भारत में कृषि से सम्बन्धित प्रमुख संस्थान, पौधों के वानस्पतिक (वैज्ञानिक) नाम, कृषि शब्दावली, महत्वपूर्ण तथ्य, वस्तुनिष्ठ प्रश्न ये भी मिलेंगे जो की आपकी एग्जाम के लिए बहुत ही ज्यादा इम्पोर्टेन्ट होने वाले हे।

1.Agriculture Notes कृषि विज्ञान की शाखाएँ :-

मृदा संबंधी अध्ययन

1. शस्य विज्ञान :- कृषि फसलों तथा मृदा प्रबंधों का अध्ययन
2. कीट विज्ञान :- फसलों पर लगने वाले कीटों एवं उनकी रोकथाम के उपायों का अध्ययन
3. पादप रोग विज्ञान :-  मृदा को अपरदन से तथा उसकी उर्वरा शक्ति को नष्ट होने से बचाने के बारे में अध्ययन
4. कृषि :- कृषि कार्य में प्रयुक्त मशीनों तथा कल-पुर्जों के बारे में अध्ययन

5. पादप दैहिकी पौधों में होने वाली दैहिक क्रियाओं का अध्ययन
6. मृदा विज्ञान :- मृदा संबंधी अध्ययन
7. कृषि जीव-रसायन फसल से संबंधित जीव-रसायनों का अध्ययन
8. पादप आनुवंशिकी पादप प्रजनन तथा नई जातियों के विकास
9. हॉर्टीकल्चर :- फलों वाली फसलों तथा बागों के प्रबंध के बारे में अध्ययन, सब्जी तथा फूल वाली फसलों

2. Agriculture Notes कृषि के प्रकार :-

1. स्थानांतरित कृषि : यह मानव की आदिम अवस्था सूचक कृषि है। इसमें सबसे पहले कुल्हाड़ी से वन के किसी खण्ड को साफ करके वृक्षों तथा झाड़ियों को जला दिया जाता है, उसके बाद कुछ वर्षों तक कृषि की जाती है। भूमि की उर्वरता समाप्त हो जाने पर उसे छोड़कर किसी दूसरी जगह पर यही क्रिया की जाती है। इसे काटना और जलाना अथवा बुश फेलो कृषि भी कहा जाता है। खेतों का आकार छोटा होता है तथा एक साथ कई फसलों की कृषि की जाती है।

2. स्थानबद्ध कृषि : यह स्थानान्तरित कृषि के विपरीत कृषि पद्धति है। यह विश्व में सबसे अधिक की जाने वाली कृषि है, जिसमें एक निश्चित स्थान पर स्थायी रूप से बसकर कृषि की जाती है।

2. स्थानबद्ध कृषि : यह स्थानान्तरित कृषि के विपरीत कृषि पद्धति है। यह विश्व में सबसे अधिक की जाने वाली कृषि है, जिसमें एक निश्चित स्थान पर स्थायी रूप से बसकर कृषि की जाती है।

3. जीविका कृषि : ऐसी कृषि जो सम्पूर्ण रूप से खेती करने वाले परिवार या उसी क्षेत्र में खप जाती है, जीविका कृषि कहलाती है। इसके अन्तर्गत धान, गेहूँ, दाल, मक्का, ज्वार-बाजरा, गन्ना, सोयाबीन, कंद वाली फसलें, शाक-सब्जी आदि की कृषि की जाती है।

4. गहन कृषि : इस प्रकार की खेती में अधिकाधिक उत्पादन प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रति इकाई भूमि पर पूंजी और श्रम अधिक मात्रा में लगाया जाता है। गहन कृषि में अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरक, सिंचाई, शस्यावर्तन तथा हरी उर्वरक, अच्छे किस्म के बीज, कीटनाशक, खाद आदि का भरपूर प्रयोग किया जाता है।

5. विस्तृत कृषि : यांत्रिक विधियों से काफी विस्तृत आकार वाले खेतों पर की जाने वाली कृषि को विस्तृत कृषि कहा जाता है। इस प्रकार की कृषि में श्रमिकों का प्रयोग कम होता है, किन्तु प्रति व्यक्ति उत्पादन की मात्रा अधिक होती है। पूर्व सोवियत संघ का स्टेपी क्षेत्र, USA का मध्यवर्ती तथा पश्चिमी मैदानी भाग, कनाडा का प्रेयरी क्षेत्र, अर्जेण्टीना का पम्पास क्षेत्र तथा आस्ट्रेलिया का डाउन्स क्षेत्र विस्तृत कृषि के अंतर्गत आता हैं।

6. मिश्रित कृषि: इस प्रकार की कृषि में कृषि-कार्यों के साथ- साथ पशुपालन का कार्य भी किया जाता है। सम्पूर्ण यूरोप महाद्वीप, USA के पूर्वी भाग, दक्षिण पूर्वी आस्ट्रेलिया, अर्जेण्टीना के पम्पास क्षेत्र, दक्षिण अफ्रीका तथा न्यूजीलैंड में मिश्रित कृषि का प्रचलन अधिक पाया जाता है।

7. रोपण या बागानी कृषि : यह एक प्रकार की पूर्णतः व्यापारिक उद्देश्यों से की जाने वाली कृषि है, जिसमें नकदी फसलों का उत्पादन किया जाता है। इसके अंतर्गत बड़े-बड़े फार्मों की स्थापना करके कारखानों की भाँति किसी एक फसल विशेष की कृषि की जाती है। जैसे—रबड़, कोको, कहवा, नारियल, चाय, कपास, पटसन आदि।

8. डेयरी फार्मिंग : यह एक प्रकार की विशेषीकृत कृषि है, जिसमें दूध देने वाले पशुओं के प्रजनन एवं उनके पालन पर विशेष ध्यान दिया जाता है। ग्रेट ब्रिटेन, आयरलैंड, बेल्जियम, डेनमार्क, नीदरलैंड, स्विट्जरलैंड, फ्रांस, उत्तरी अमेरिका में विशाल झील के समीपवर्ती क्षेत्र, दक्षिण पूर्वी ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड में डेयरी कृषि विस्तृत पैमाने पर की जाती है।

9. ट्रक फार्मिग : व्यापारिक स्तर पर की जाने वाली सब्जियों एवं फलों-फूलों की कृषि जिसमें परिवहन के लिए ट्रकों का अधिक उपयोग किया जाता है, ट्रक फार्मिंग कहलाता है।

3. कृषि के विशेष प्रकार Agriculture Notes PDF:-

1. एपीकल्चर :- व्यापारिक स्तर पर शहद उत्पादन हेतु किया जाने वाला मधुमक्खी या मौन पालन का कार्य
2. आरबरीकल्चर :- विशेष प्रकार के वृक्षों तथा झाड़ियों की कृषि जिसमें उनका संरक्षण और संवर्द्धन भी शामिल
3. फ्लोरीकल्चर :- व्यापारिक स्तर पर किया जाने वाला
4. हार्टीकल्चर :- व्यापारिक स्तर पर किया जाने वाला विभिन्न प्रकार के फलों का उत्पादन
5. हॉर्सीकल्चर :- सवारी और यातायात के लिए उन्नत प्रजाति के घोड़ों और खच्चरों के व्यापारिक स्तर पर पालने की क्रिया
6. मेरीकल्चर :- व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु समुद्री जीवों के उत्पादन की क्रिया
7. ओलेरीकल्चर :- जमीन पर फैलने वाली विभिन्न प्रकार की सब्जियों की कृषि
8. पीसीकल्चर :- व्यापारिक स्तर पर की जाने वाली मछली पालन की क्रिया
9. सिल्वीकल्चर :- वनों के संरक्षण एवं संवर्द्धन से सम्बन्धित क्रिया
10. सेरीकल्चर :- व्यापारिक स्तर पर की जाने वाली रेशमपालन की क्रिया जिसमें शहतूत आदि की कृषि भी सम्मिलित होती है
11. विटीकल्चर :- व्यापारिक स्तर पर की जाने वाली अंगूर उत्पादन की क्रिया
12. वेजीकल्चर :- दक्षिण पूर्वी एशिया में आदि मानव द्वारा सर्वप्रथम की गई वृक्षों की आदिम कृषि
13. ओलिवीकल्चर :- व्यापारिक स्तर पर की जाने वाली जैतून (Olive) की कृषि
14. वर्मीकल्चर :- व्यापारिक स्तर पर की जाने वाली केंचुआ पालन की क्रिया
15. मोरीकल्चर :- रेशम कीट हेतु व्यापारिक स्तर पर की जाने वाली शहतूत की कृषि

4. Agriculture Notes PDF Topic मृदा :-

मृदा शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द सोलम (Solum) से | हुई है, जिसका अर्थ है फर्श (Floor) | बकमैन एवं ब्रैडी के अनुसार “मृदा वह प्राकृतिक पिण्ड है जो विच्छेदित एवं अपक्षयित खनिज पदार्थों । तथा कार्बनिक पदार्थों के सड़ने से बने विभिन्न पदार्थों के परिवर्तनशील मिश्रण से प्रोफाइल के रूप में संश्लेषित होती है। यह पृथ्वी को एक पतले आवरण के रूप में ढकती है तथा जल एवं वायु की उपयुक्त मात्रा के मिलाने पर पौधों को यांत्रिक आधार तथा आंशिक जीविका प्रदान करती है।”

1. उपरिमृदा (Topsoil) तथा 2. अवमृदा (Subsoil)

1. उपरिमृदा (Topsoil) : मृदा का बाहरी परत उपरिमृदा कहलाता है। कृषि कार्य के लिए उपरिमृदा ही सर्वाधिक उपयुक्त होता है, क्योंकि इसमें ही सभी पादप पोषक तत्व, जल एवं वायु पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं | मृदा की उर्वरता को यथावत बनाए रखने में सहायक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले भूजीव भी अपेक्षाकृत उपरिमृदा में ही अधिक सक्रिय होते हैं ।

2. अवमृदा (Subsoil) : मृदा का निचला परत अवमृदा कहलाता है। इसमें आवश्यक पादप पोषक तत्व और भूजीव बहुत ही कम मौजूद होते हैं।

मृदा उर्वरता (Soil fertility) :- मृदा द्वारा पौधों को उनके सभी आवश्यक पोषक तत्वों को प्राप्य अवस्था में उपलब्ध कराने की क्षमता को मृदा उर्वरता कहते हैं।

मृदा जल (Soil water) :- मृदा में उपस्थित जल को मृदा जल कहा जाता है। मृदा जल तीन प्रकार के होते हैं, ये हैं—आर्द्रताग्राही जल, गुरुत्वाकर्षण जल तथा केशिकीय जल आर्द्रताग्राही जल तथा गुरुत्वाकर्षण जल पौधों को उपलब्ध नहीं होता है । केशिका जल ही पौधों के काम आता है।

अम्लीय मृदा (Acidic soil) :- जिस मृदा का pH 7 से कम होता है, उसे अम्लीय मृदा कहते हैं, परन्तु व्यावहारिक रूप में जिस मृदा का pH 5.5 या इससे कम है, उसे अम्लीय माना जाता है। अम्लीय मृदा में सुधार के लिए चूना होता पदार्थों का उपयोग किया जाता है।

लवणीय मृदा (Saline soil) :- जिस मृदा में घुलनशील लवण की सांद्रता विषैले स्तर तक मौजूद हो यानि जिस मृदा के लिए विद्युत् चालकता 4.0 हो, जिसमें स्थानापन्न सोडियम 15 प्रतिशत से कम तथा pH 8.5 से कम हो, तो वह लवणीय मृदा होती है। घुलनशील लवणों में अधिकतर सोडियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम के क्लोराइड व सल्फेट होते हैं ।

क्षारीय मृदा (Alkaline soil):- वे मृदाएँ जिनमें 25° सेल्सियस ताप पर मृदा के संतृप्त निष्कर्ष की विद्युत् चालकता 4 ds/m से कम होती है, स्थानापन्न या विनिमेय सोडियम 15 प्रतिशत से अधिक पाया जाता है तथा pH 8.5 से 10.0 तक होता है, क्षारीय मृदा कहलाती है।

भारत में लगभग 71 लाख हेक्टेयर भूमि ऊसर हैं। सर्वाधिक ऊसर भूमि का विस्तार उत्तर प्रदेश में पाया जाता है। (12-13 लाख हेक्टेयर)

मृदा क्षरण या मृदा अपरदन (Soil erosion) :- जल और वायु के साथ मृदा के कटाव, बहाव अथवा उड़ने के ढंग मृदा अपरदन कहते हैं। मृदा की ऊपरी सतह जिसमें पोषक तत्व मौजूद रहते हैं, के कट जाने से भूमि की उर्वरता में कमी आती है। मृदा अपरदन पर वर्षा, भूमि की ढाल, किस्म, वनस्पति, जुताई और फसलों का अभाव, ढाल पर जुताई तथा पशुओं द्वारा चराई का सीधा प्रभाव पड़ता है। मृदा अपरदन को मृदा की रेंगती मृत्यु कहा जाता है।

मृदा संरक्षण (Soil conservation) :- मृदा को विभिन्न क्षरण शक्तियों द्वारा कटने-बहने से बचाने के लिए और उसकी उर्वरता बढ़ाने को मृदा संरक्षण कहते हैं।

Agriculture Notes मृदा संरक्षण के उपाय :

1. अच्छी घास भूमि को ढक लेती है, तथा इसकी जड़ें मिट्टी को जकड़कर अपरदन से बचाती हैं।

2. वृक्षारोपण से वर्षा जल की बूँदें सीधी भूमि पर नहीं पड़तीं और मृदा अपरदन को रोकती है। इसी प्रकार हवा भी जमीन की सतह पर कम हानि कर पाती है।

3. मेड़ बनाकर वर्षा से होने वाले मृदा अपरदन को रोका जा सकता है।

4. भूमि को समतल बनाकर जल प्रवाह को रोकने से मृदा अपरदन नहीं हो पाता है।

5. भूमि के विभिन्न ऊँचाई वाले भागों को एक साथ करके खेती करनी चाहिए।

6. पौधों की पंक्तियाँ भूमि की ढाल के विपरीत हों तथा वायु की दिशा के विपरीत हो ।

7. खेत से अतिरिक्त पानी को इस प्रकार निकाला जाए कि उससे कटाव न्यूनतम हो ।

8. ढालू जमीन पर सीढ़ीनुमा खेत बनाकर जलप्रवाह को रोका जा सकता है।

9. पशुचारण को नियंत्रित कर मृदा अपरदन को रोका जा सकता है।

10. फसल चक्र पद्धति अपनाकर मृदा को ह्रास होने से बचाया जा सकता है।

11. स्थानान्तरित कृषि को रोककर मृदा अपरदन पर नियंत्रण किया जा सकता है।

12. कृषित भूमि को कम से कम समय के लिए परती रखने से मृदा अपरदन को रोका जा सकता है।

मृदा जीव (Soil organism):- मृदा में पादप व जन्तुओं के रूप में अनेक सूक्ष्म व बड़े क्रियाशील प्राणी पाये जाते हैं। सूक्ष्म पादपों में जीवाणु, कवक, शैवाल आदि पाये जाते हैं, जबकि बड़े जीवों के रूप में कृमि, कीट, चूहे, नीमेटोड्स आदि पाये जाते हैं। मृदा जीव केंचुआ को किसानों का मित्र, प्रकृति का हलवाहा (Nature’s ploughman), पृथ्वी की आंत (Intestines of earth), मृदा उर्वरता का बैरोमीटर (Barometer of soil fertility) आदि कहा जाता है।

भू-परिष्करण (Tilliage) :- फसल उत्पादन के लिए यंत्रों के उपयोग के द्वारा भूमि के तैयार करने की वह पद्धति जिसके परिणामतः भूमि में बीज बोने एवं पौधों की वृद्धि हेतु अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं, भूपरिष्करण कहलाता है। इसके अंतर्गत भूमि पर की जाने वाली ऐसी सभी क्रियाएँ आती हैं, जिससे मृदा की संरचना में परिवर्तन होता है। कृषि कार्य में भूपरिष्करण के निम्नलिखित उद्देश्य हैं—खर पतवारों का नियंत्रण, मृदा में नमी का संरक्षण, मृदा में वायु संचार की व्यवस्था करना, कीटों व रोगों का नियंत्रण, मृदा में उर्वरक व खाद मिलाना आदि ।

भारत की मिट्टियाँ (Soils of India) :- भारतीय कृषि अनुसंधान समिति ने भारत की मृदा को 8 मुख्य प्रकारों में विभाजित किया है—जलोढ़ मृदा, लाल मृदा, काली मृदा, लैटेराइट मृदा, मरुस्थलीय मृदा, क्षारीय मृदा, दलदली मृदा एवं वनीय मृदा; परन्तु क्षेत्रीय विस्तार और कृषि में महत्व की दृष्टि से भारतीय मृदा के चार प्रमुख वर्ग हैं—

1. जलोढ़ मृदा (Alluvial soil) 2. लाल मृदा (Red soil) 3. काली मृदा (Black soil) एवं 4. लैटेराइट मृदा (Laterite soil)

काली मृदा, लाल मृदा एवं लैटेराइट मृदा प्रायद्वीपीय भारत की मृदाएँ हैं, जबकि जलोढ़ मृदा का विस्तार मध्यवर्ती एवं तटीय मैदानी भू-भागों में पाया जाता है। भारत की 80 प्रतिशत भूमि पर इन्हीं चार मृदाओं का विस्तार पाया जाता है।

1. जलोढ़ मृदा (Alluvial soil): यह भारत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसका विस्तार मैदानी और तटीय भागों के लगभग 8 लाख वर्ग मृदा किमी. क्षेत्र में (भारत के समस्त स्थल भाग के 24% हिस्से पर) पाया जाता है। मध्यवर्ती मैदानी क्षेत्र में जलोढ़ मृदा का निर्माण नदियों द्वारा जमा की गई अवसादों से हुआ है, जबकि तटवर्ती क्षेत्रों में समुद्री लहरों द्वारा निक्षेपित अवसादों से हुआ है। उत्तर भारत के विशाल मैदान की रचना जलोढ़ मृदा से हुई है। मध्य प्रदेश और गुजरात में नर्मदा और ताप्ती नदियों की घाटियों में मध्य प्रदेश और ओडिशा में महानदी की घाटियों में, आंध्र प्रदेश में गोदावरी की घाटी में, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में कृष्णा की घाटी में और तमिलनाडु में कावेरी की घाटी में जलोढ़ मृदा पायी जाती है। डेल्टाई पांक जलोढ़ मृदा का ही एक उपवर्ग है। पुरानी जलोढ़ को बाँगड़ तथा नई जलोढ़ को खादर कहा जाता है। नई जलोढ़ निम्न क्षेत्र की मृदा होती है, तथा इनमें नमी बनाये रखने की क्षमता अधिक हुआ करती है। पुरानी जलोढ़ की तुलना में यह कहीं अधिक उपजाऊ होती है और उर्वरकों का प्रयोग कृषि कार्य के दौरान कम करना पड़ता है। जलोढ़ मृदा में जब बालू के कण और चिकनी मिट्टी (मृत्तिका या चीका), लगभग बराबर होती है, तो उसे दोमट या दोरस कहा जाता है। जलोढ़

मृदा में सामान्यतः नाइट्रोजन और जीवांश (Humus) की कमी पायी जाती है। अतः उर्वर बनाने के लिए इनमें नेत्रजनीय उर्वरक का प्रयोग किया जाता है। धान, गेहूँ, दलहन, तिलहन, कपास, गन्ना आदि फसलों की खेती के लिए जलोढ़ मृदा उपयुक्त होती है। पश्चिम बंगाल एवं असम में जहाँ काफी वर्षा होती है, वहाँ इन मृदाओं में जूट की खेती होती है। दूसरे शब्दों में, जलोढ़ मृदा सभी प्रकार के फसलों की कृषि के लिए उपयुक्त होती है।

काली मृदा (Black soil) : काली मृदा का स्थानीय नाम रेगुड़ (Regur) है। कपास की खेती के अधिक उपयुक्त होने के कारण इस मृदा वर्ग को काली कपासी मृदा भी कहा जाता है। इस मृदा का काला रंग टिटेनीफेरस मैग्नेटाइट एवं जीवांश के मिश्रण के कारण होता है। भारत में यह मृदा लगभग 5 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में मिलती है। यह मुख्य रूप से दक्षिणी भागों में पायी जाती है। आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात, दक्कन के पठार आदि क्षेत्रों में इसका विस्तार पाया जाता है। इस मृदा की जल धारण क्षमता बहुत अधिक होती है व भींगने पर यह चिपचिपी हो जाती है तथा सूखने पर इसमें बड़ी बड़ी दरारें पड़ जाती हैं, जिससे मृदा के महीन कणों को अंदर प्रवेश करने का अवसर मिल जाता है। काली मृदा में फसलों की कृषि के लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। शुष्क कृषि के लिए यह उपयुक्त मृदा होती है। इसमें कैल्सियम, ऐलुमिनियम, आयरन, पोटाश आदि, प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं, परन्तु नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व कार्बनिक पदार्थ अल्प मात्रा में पाये जाते हैं।

3. लाल मृदा (Red soil) : हल्के लाल से गहरे लाल रंग की इस मृदा का निर्माण लौहयुक्त ग्रेनाइटिक चट्टानों या उनके रूपांतरित चट्टानों (नाइस, शिस्ट आदि) के विखंडन से हुआ है। भारत में लाल मृदा का विस्तार लगभग 5 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में पाया जाता है। मुख्य रूप से यह प्रायद्वीपीय पठार के पूर्वी भाग में मिलती है। यह एक स्थानबद्ध
मृदा है। इस मृदा में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और जीवांश की मात्रा कम रहती है, जबकि लोहा, एलुमिना व अघुलनशील पदार्थ पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। लोहा के यौगिकों के कारण ही इस मृदा का रंग लाल होता है। रंध्रयुक्त होने के कारण लाल मृदा की जलधारण क्षमता कम होती है, अतः कृषि की दृष्टि से यह अधिक महत्त्वपूर्ण मृदा नहीं होती
है। लाल मृदा में जहाँ सिंचाई की सुविधा है वहँ धान, मडुआ, तम्बाकू, आलू, कपास, तीसी आदि की कृषि की जाती है। तमिलनाडु में लाल मृदा के क्षेत्र में सिंचाई के बल पर उत्तम कोटि के कपास व गन्ने की कृषि की जाती है। तमिलनाडु की दो-तिहाई मृदा लाल-मृदा है।

4. लैटेराइट मृदा (Lateritic Soil) : लैटराइट मृदा मुख्यतः उन क्षेत्रों में पायी जाती है, जहाँ भारी वर्षा होती है। यह मृदा पठारों पर उच्च तापमान और भारी वर्षा के क्षेत्र मे तीव्र निक्षालन क्रिया के फलस्वरूप बनती है। भारत में इस मृदा का विस्तार लगभग 1.25 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में पाया जाता है। इस मृदा का रंग पकी हुई ईंट की तरह लाल होता है। पश्चिमी घाट का तटवर्ती क्षेत्र, प्रायद्वीपीय पठार का पूर्वी भाग, राजमहल की पहाड़ी, मेघालय की पहाड़ी आदि ऐसे क्षेत्र है, जहाँ लैटेराइट मृदा का विस्तार पाया जाता है। जहाँ तहाँ लौह ऑक्साइड की गाँठे बड़े बड़े कंकड़ों के रूप में प्रधानता से बिछी रहने के कारण यह मृदा कृषि के लिए अनुपयुक्त होती है। वर्षा होने पर लैटेराइट मृदा चिपचिपी हो जाती है। लैटेराइट मृदा में नाइट्रोजन, पोटाश, फॉस्फोरस, जीवांश, चूना आदि का अभाव पाया जाता है। लैटेराइट मृदा में गोंदली आदि की खेती की जाती है।

5. मरुस्थलीय मृदा (Desert Soil) : यह मृदा भारत के शुष्क व अर्द्धशुष्क प्रदेशों यथा राजस्थान, उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों, काठियावाड़ आदि क्षेत्रों में पायी जाती है। जम्मू-कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र में भी इस प्रकार की मृदा मिलती है। केरल तट पर इस प्रकार की मृदा को कारी कहा जाता है। इस मृदा का स्थानीय नाम भूड़ है। इस मृदा में जीवांश अत्यल्प, नमी कम, नाइट्रोजन की न्यूनता तथा फॉस्फोरस की अधिकता होती है। सिंचाई करने पर यह मृदा उपजाऊ हो सकती है। राजस्थान का गंगानगर जहाँ पर इस मृदा का विस्तार पाया जाता है, इन्दिरा नहर के बन जाने से कपास और खाद्यान्नों का महत्वपूर्ण उत्पादक बन गया है।

6. पर्वतीय मृदा (Mountain soil) : यह मृदा काफी उपजाऊ होती है, क्योंकि इसमें अन्य मृदा की तुलना में जीवांश (Humus) की मात्रा अधिक होती है। यह मृदा मुख्य रूप से भारत के उत्तर-पूर्वी भाग और हिमालय क्षेत्र में पायी जाती है। इस मृदा में पोटाश, फॉस्फोरस और चूने की कमी होती है। यह मृदा चाय की खेती के लिए उपयुक्त होती है। जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में पर्वतीय मृदा के क्षेत्र में शीतोष्ण कटिबंधीय फलों तथा गेहूँ, जौ और मक्का की खेती की जाती है।

5. बीज:- कृषि कार्य में उत्तम बीज की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, फसलों की पैदावार बहुत हद तक उत्तम बीज पर निर्भर करती है। केन्द्र सरकार ने कृषि उत्पादन में बीजों की महत्वपूर्ण भूमिका को समझते हुए 1963 में राष्ट्रीय बीज निगम एवं 1969 में भारतीय राज्य फार्म निगम की स्थापना की। इसका उद्देश्य विभिन्न फसलों के प्रमाणित बीजों के उत्पादन एवं वितरण में सुधार लाना था।

प्रमाणिक बीज के लक्षण : किसी प्रमाणिक बीज के निम्नलिखित लक्षण होते हैं— 1. बीजों में आनुवंशिक शुद्धता होनी चाहिए। 2. बीजों में भौतिक शुद्धता होनी चाहिए।

3. बीज पूर्णतः परिपक्व होने चाहिए ताकि उसका उपयुक्त अंकुरण हो सके। 4. बीज उसी वर्ष में उत्पन्न किया गया होना चाहिए, जिस वर्ष में उसका उपयोग किया जाना हो।
5. बीजों को रोगरहित होना चाहिए।

बीज के प्रकार : शुद्धता के आधार पर बीज मूलतः चार प्रकार के होते हैं-

1. प्रजनक बीज (Breeders seeds) : यह सर्वाधिक आनुवंशिक शुद्धता वाला बीज होता है, जिसे पादप प्रजनक या संस्था द्वारा पैदा किया जाता है एवं उससे सीधा सम्बन्धित होता है।

2. आधार बीज (Foundation seeds) : आधार बीज बीज उत्पादन चक्र की द्वितीय अवस्था है। ये प्रजनक बीज से विकसित किये जाते हैं एवं इनका उत्पादन इस प्रकार किया जाता है कि विशेष मानकों के अनुसार इनमें आनुवंशिक गुण और शुद्धता बनी रहती है।

3. पंजीकृत बीज (Registered seeds) : यह बीज उत्पादन चक्र की तृतीय अवस्था है। यह आधार बीज से तैयार किया जाता है। इसका उत्पादन प्रमाणीकरण संस्था की देख-रेख में किया जाता है, ताकि इसमें आनुवंशिक गुणों व शुद्धता को विशेष मानकों के अनुसार बनाये रखा जा सके।

4. प्रमाणित बीज (Certified seeds) : प्रमाणित बीज व्यावसायिक रूप से खेती के लिए काम आने वाले बीज की अंतिम अवस्था है। ये बीज पंजीकृत या आधार बीज से तैयार किये जाते हैं और किसानों को बोआई के लिए दिए जाते हैं।

14. पादप पोषण वे तत्व जिनकी कमी के कारण पादप कार्यिकी (Plant physiology)पर प्रभाव पड़ता है, उन्हें आवश्यक पोषक (Essential plant nutrients) कहते हैं । कैलीफोर्निया के प्रमुख वैज्ञानिक आरनोन ने 17 तत्वों को आवश्यकता की सूची में रखा । अतः पौधे के लिए 17 तत्व ही आवश्यक माने गये हैं, जो निम्नलिखित तीन शर्तों को पूरा करते हो-

1. जिसका पौधे की चयापचयशील क्रियाओं से सीधा सम्बन्ध हो
2. उस तत्व की कमी को दूसरे तत्व से पूरा न किया जा सके।

आवश्यक पोषक तत्वों को पौधों की आवश्यकतानुसार तीन वर्गों में विभक्त किया जाता है, ये हैं—

1. मुख्य पोषक तत्व (Macro nutrients) : वे तत्व, जिनकी पौधों की अधिक आवश्यकता होती है, मुख्य पोषक तत्व कहलाते हैं, जैसे-नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, एवं पोटैशियम ।

2. गौण पोषक तत्व (Secondary nutrients) : वे तत्व जो पौधों को अधिक मात्रा में चाहिए, लेकिन उनका काम मुख्य पोषक तत्व से कम होता है, गौण पोषक तत्व कहलाते हैं, जैसे—कैल्सियम, मैग्नीशियम, तथा सल्फर ।

3. सूक्ष्म पोषक तत्व (Micro nutrients) : वे तत्व जो पौधों को सूक्ष्म मात्रा में आवश्यकता होती है, सूक्ष्म पोषक तत्व कहलाते हैं, जैसे—आयरन, जिंक, कॉपर, कोबाल्ट, मैंगनीज, बोरोन, क्लोरीन, सोडियम एवं मोलिब्डेनम ।

15. खर-पतवार:- ऐसे अवांछनीय पौधे जो बिना बोये फसलों के साथ उग आते हैं एवं पौधों के लिए सामान्यतः हनिकारक होते हैं, खर-पतवार कहलाते हैं। कभी-कभी अहानिकारक पौधे भी जब फसल के साथ उग आते हैं, तो वे भी खर-पतवार की श्रेणी में ही आते हैं। उदाहरणार्थ, यदि गेहूँ की फसल में मटर का पौधा उग जाता है, तो ऐसी स्थिति में मटर भी खर-पतवार ही कहलाता है।

खर-पतवार की विशेषताएँ : खर-पतवार की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—

1. ये अनुपयोगी एवं अवांछनीय होते हैं ।
2. ये सामान्यतः फसलों के लिए हानिकारक होते हैं ।
3. ये फसलों के साथ पोषक तत्वों तथा जल के लिए प्रतियोगिता करते हैं।
4. कुछ खर-पतवार अधिक मात्रा में बीज उत्पन्न करते हैं। उदाहरणार्थ चौलाई प्रतिवर्ष 1 लाख 80 हजार बीज पैदा कर सकता है।
5. इससे फसल का उत्पादन प्रभवित होता है ।
6. यह भूमि की उर्वरा शक्ति को कम कर देता है।

खर-पतवार से हानि : खेतों में खर-पतवारों के उग आने से निम्नलिखित प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं—
1. खर-पतवारों के खेतों में उग आने से वह फसल के साथ पोषक तत्व, जल, स्थान, प्रकाश आदि के लिए प्रतियोगिता करता है, जिससे उपज में 5 से 50 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है।
2. खेतों में पोषक तत्वों की हानि
3. खेतों में नमी का ह्रास
4. स्थान एवं प्रकाश की उपलब्धता में कमी
5. फसल की गुणवत्ता में कमी
6. भूपरिष्करण के खर्च में वृद्धि
7. कीड़े एवं बीमारियों का अधिक प्रकोप

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खर-पतवारों से लाभ : खर-पतवार से कुछ लाभ भी होते हैं, जो निम्नलिखित हैं-

1. खर-पतवार मृदा अपरदन एवं भूमि कटाव को रोकते हैं।
2. कुछ खर-पतवारों का उपयोग औषधि निर्माण में होता है।
3. कुछ खर-पतवारों का उपयोग पशुचारा के रूप में होता है।

खर-पतवार का नियंत्रण: खर-पतवारों के नियंत्रण हेतु जिन रासायनिक पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है, उन्हें शाकनाशी (Herbicides) कहा जाता है। शाकनाशी दो प्रकार के होते हैं-
1. वरणात्मक शाकनाशी (Selective herbicides)
2. अवरणात्मक शाकनाशी (Non-selective herbicides)

वरणात्मक शाकनाशी किसी जाति विशेष के पादपों को ही नष्ट करने में सक्षम होते हैं एवं दूसरे पादपों को कोई हानि नहीं पहुँचाते हैं, जैसे- 2, 4, D, जबकि अवरणात्मक शाकनाशी अपने संपर्क में आने वाली सभी वनस्पतियों को क्षति पहुँचाते हैं। अतः इसका उपयोग बहुत कम किया जाता है।

16. पादप रोग विज्ञान पौधे में किसी भी प्रकार का विघ्न जो उसकी सामान्य संरचना, कार्य अथवा आर्थिक उपयोगिता में बाधा उत्पन्न करता है, पादप रोग (Plant disease) कहलाता है।

पौधे में रोग के कई कारक है, जो पौधों में असामान्य लक्षण पैदा करते हैं-

1. विषाणुजनित रोग (Viral diseases), जैसे-तम्बाकू का मौजेक रोग, आलू का मोजैक रोग, बंकी टॉप ऑफ बेनाना आदि।

2. जीवाणु जनित रोग (Bacterial diseases), जैसे—आलू का शैथिल रोग, धान का अंगमारी रोग, ब्लैक आर्म या एंगूलर लीफ स्पॉट ऑफ कॉटन, साइट्रस कैंकर, गेहूँ का टूण्डू रोग आदि ।

3. कवकीय रोग (Fungal diseases), जैसे—आलू का वार्ट रोग, डैम्पिंग ऑफ या आर्द्र गलन, आलू का उत्तरभावी अंगमारी रोग, बाजरा का ग्रीनइयर रोग, गेहूँ का किट्टू रोग, गेहूँ का ढीला कंड, धान का झौंका रोग, मूँगफली का टिक्का रोग, गन्ने का लाल सड़न रोग, ब्राउन लीफ स्पॉट ऑफ राइस, बाजरे का इरगाट, बाजरे का स्मट, अरहर का झुलसा रोग, कॉफी रस्ट, गेहूँ का पाउडरी मिल्ड्यू रोग, राई का इरगाट रोग, सरसों का श्वेत गैरिक रोग, तीसी का रस्ट रोग, धनिये का स्टेम गाल रोग, आडू का लीफ कर्ल रोग आदि ।

4. अजैविक रोग (Abiotic diseases), जैसे—धान का खैरा रोग, नींबू में डाईबैक रोग, नींबू में लिटिल लीफ रोग, मटर में मार्श रोग आदि । माध्यम के आधार पर पादप रोगों को निम्नलिखित वर्गों में बाँटा जा सकता है—

1. मृदा वाहित (Soil born), जैसे—उकठा
2. बीज वाहित (Seed born), जैसे–कण्डुआ
3. वायु वाहित (Air born), जैसे—गेरुई
4. कीट वाहित (Insect born), जैसे—मोजैक

घटना एवं प्रतिस्थापन के अनुसार पादप रोगों को निम्म वर्गों में वर्गीकृत किया गया है-

1. विशेषक्षेत्री रोग (Endemic disease): जब कोई रोग एक क्षेत्र विशेष अथवा पृथ्वी के किसी एक भाग पर निरन्तर एक वर्ष से दूसरे वर्ष मामूली से प्रचंड रूप से उत्पन्न होता है, तो यह विशेषक्षेत्री रोग कहलाता है। जैसे—आलू का अगैती झुलसा

2. महामारी या पादप महामारी रोग (Epidemic or Epiphytotic disease): वह रोग जो सामान्यतः व्यापक एवं विनाशकारी रूप में एक बहुत बड़े क्षेत्र की फसल पर कभी-कभी अथवा सामयिक उत्पन्न होते हैं तथा फसलों को अधिक क्षति पहुँचाते हैं, पादप महामारी रोग कहलाते हैं। जैसे—गन्ने का लाल सड़न रोग, आलू का पछेती झुलसा
आदि ।

3. विरलमारी या विकर्ण रोग (Sporadic disease): ये रोग बहुत अनियमित अन्तरालों तथा स्थानों पर बहुत थोड़े उदाहरणों के रूप में पाये जाते हैं। जैसे—बाजरे का हरित बाली रोग ।

17. फसल सुरक्षा:- पौधों को विभिन्न प्रकार के रोगों एवं कीट-पतंगों से बचाने की क्रिया को फसल सुरक्षा कहते हैं । कीटों एवं रोगों के दूसरे देशों से आवाजाही को रोकने के लिए सरकार की तरफ से कुछ नियमों का प्रावधान किया गया है, जिसे संगरोध (Quarantine) कहते हैं ।

रोग, कीट एवं खर-पतवारों के नियंत्रण की विधियाँ : रोग, कीट एवं खर-पतवारों के नियंत्रण की तीन प्रमुख विधियाँ हैं-

1. रासायनिक नियंत्रण: रासायनिक पदार्थों के उपयोग से रोग, कीट व खर-पतवारों पर नियंत्रण स्थापित करना रासायनिक नियंत्रण कहलाता है।

2. जैविक नियंत्रण : प्राकृतिक भक्षकों तथा परजीवियों को प्रोत्साहित करके रोगों, कीटों एवं खर-पतवारों का नियंत्रण जैविक नियंत्रण कहलाता है।

3. समन्वित नियंत्रण : कीट-पतंगों, रोगों अथवा खर-पतवारों को कृषिगत, भौतिक, रासायनिक तथा जैविक सभी प्रकार की विधियों के समन्वित प्रयास से किए जाने वाले नियंत्रण को संयुक्त या समन्वित नियंत्रण कहते हैं।

 

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